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७२ | तीर्थंकर महावीर
पर-दुःखकातर महावीर धीरता-वीरता की मूर्ति महावीर ने चातुर्मास पूर्ण कर अस्थिक ग्राम से वाचाला की ओर प्रस्थान किया। बीच में पड़ता था मोराकसन्निवेश । वहाँ एक छोटा-सा उजड़ा हुआ उद्यान था। महावीर ने एकान्त देखकर वहीं पर कुछ दिन ध्यान करने का निश्चय किया।
गांव के भद्र-प्रकृति एवं साधुताप्रेमी लोगों ने जब शिशिर-ऋतु की कड़कड़ाती सर्दी में महावीर को एकान्त वन में कठोर साधना करते देखा तो वे बड़े प्रभावित हुये। उनकी तेजोदीप्त सौम्य आकृति से जहाँ देवोपम सुन्दरता एवं सुकुमारता झलकती थी, वहीं कठोर तप, एकाग्र ध्यान एवं उत्कृष्ट ज्ञान की आभा भी दर्शकों को प्रभावित कर लेती थी। धीरे-धीरे श्रद्धालु जनता की भीड़ महावीर के आस-पास जमने लगी और उनके दर्शन तथा सान्निध्य मात्रसे अनेक कार्य चमत्कारी ढंग से सिद्ध होने लगे। अतः पूरा गांव ही महावीर की भक्ति में मग्ग हो गया।
महावीर के प्रति लोकश्रद्धा उमड़ती देखकर वहां के निवामी अच्छंदक जाति के ज्योतिषी घबरा गये । वे ज्योतिष एवं निमित्त (टोने-टोटके ) के सहारे ही अपनी वृत्ति चलाते थे । अत: उन्हें लगा-श्रमण महावीर ज्ञानी हैं, कहीं हमारी पोल खोल दी तो हमारा धन्धा ही चौपट हो जायगा। वे एकान्त में महावीर के पास आये और दीनतापूर्वक प्रार्थना करने लगे-"देवार्य ! हमें शका है, यहां आपकी उपस्थिति से हमारे धन्धे को चोट पहुंचेगी। कहीं हमारे बाल-बच्चों को भूखों मरने की नौबत न आ जाय । आप तो श्रमण हैं, स्वयंबुद्ध हैं, कहीं भी जाकर अपनी साधना तपस्या कर सकते हैं. हम बाल-बच्चेवाले गृहस्थी कहां जायेंगे ? कृपा कर हमारी रक्षा कीजिये।"
महावीर अपने कप्ट में वज्र से भी कठोर थे, तो दूसरों के कष्ट के प्रति नवनीत से भी अधिक कोमल, शिरीष पुष्प से भी अधिक मृदु ! यद्यपि वे कठोर सत्य के उपासक थे, पाखण्ड और अन्धविश्वास के कट्टर विरोधी थे, उनकी उपस्थिति से सहजरूप में ही जनता अन्धविश्वासों के चंगुल से मुक्त हो रही थी, झूठे टोनेटोटकों के चक्र से वह छुटकारा पा रही थी। यह उन्हें इष्ट भी था, पर साथ ही अच्छंदकों की वृत्ति (आजीविका) पर सीधा प्रहार हो रहा था उनके मन में श्रमण महावीर के प्रति अप्रीति, द्वेष और रोप के भाव उमड़ रहे थे । अहिंसा के परम आराधक महावीर को यह भी कैसे अभीष्ट होता ? फिर उनका संकल्प था अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहना । जहां प्रेम-क्षेम नहीं, वहां क्षणभर भी ठहरना नहीं।