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७० | तीर्थकर महावीर गया। उसने अपने अन्तस् की सम्पूर्ण दुष्टता और क्रूरता को खींचकर महावीर पर उंडेल दिया, महावीर फिर भी स्थिर रहे, तो दैत्य की धृष्टता का नशा उतर गया, उसका विश्वास टूट गया, वह महावीर के समक्ष हार गया। जैसे विषधर पत्थर पर फन मार-मार कर निर्वीर्य हो जाता है, आग पानी से लड़-लड़ कर निस्तेज हो जाती है, वैसे ही दुष्टता आज साधुता से भिड़-भिड़ कर निष्प्राण हो गई। शूलपाणि यक्ष पुष्पपाणि महावीर के समक्ष हतप्रभ हो गया। उसका अज्ञान, देष और वासना से दूषित चित्त अपने आप पर घृणा करने लगा । वह प्रभु महावीर के अनन्त सामर्थ्य, अक्षय-असीम धैर्य और उत्कट अभयवृत्ति के समक्ष विनत होकर क्षमा मांगने लगा-- "देवार्य ! आपका बल-वीर्य अद्वितीय है, आपका सामर्थ्य अनन्त है, आपकी साधुता असीम है । लगता है मेरी क्रूरता को जीतने के लिये ही आज आपकी समता का अक्षय सागर उमड़ आया है। प्रभो ! मैं हार गया, मेरी दुष्टता, दानवता क्षमा चाहती है। आप कौन हैं, परिचय दीजिये और मुझ पापात्मा का भी उद्धार कीजिये।"
कहा जाता है, आत्मग्लानि से आत्मबोध का उदय हो जाता है । सचमुच शूलपाणि के सम्बन्ध में ऐसा ही हुआ । सिद्धार्थ नामक यक्ष, जो शायद अब तक इस दृष्टता और साधुता, भय और अभय के द्वन्द्व को चुपचाप देखता रहा होगा, प्रकट होकर बोला-"शूलपाणि, क्या तुम नहीं जानते, ये राजा सिद्धार्थ के पुत्र श्रमण वर्धमान हैं, ये ही हैं इस युग के अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर ।"
शलपाणि की आंखों में जैसे ज्योति जगमगा उठी । एक ओर पश्चाताप, दूसरी ओर अपार हर्ष के आवेग में वह नाच उठा, लोहे को जैसे पारस का स्पर्श हो गया, महाप्रभु के चरणों के स्पर्श से शूलपाणि यक्ष में भक्ति एवं स्नेह की लहर उमड़ पड़ी। दिल दहलाने वाले अट्टहासों के स्थान पर अब मधुर संगीत की भक्तिपूर्ण स्वर-लहरियां गजने लगीं । शान्त रात्रि के अन्तिम पहर में शीतल पवन के साथ बहता हुआ मधुर मंगीत चारों दिशाओं में जैसे माधुर्य, भक्ति, प्रेम और करुणा का रस बहाने लगा।
प्रथम रात्रि के अट्टहासों से भयभीत ग्रामवासियों ने जब रात्रि के अन्तिम पहर में मधुर संगीत की ध्वनियां सुनी तो अतीव आश्चर्य में डूब गये । उन्हें लगा, दुष्ट यक्ष ने देवार्य की हत्या कर डाली है और अपनी विजय पर खुशियां मना रहा है।
इस अपूर्व संघर्ष में शारीरिक एवं मानसिक श्रम के कारण श्लथ महावीर