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५० | तीर्थकर महावीर
यशोदा चुप क्यों रही ? चरित्र लेखकों ने यशोदा-सुन्दरी के साथ वर्धमान का पाणिग्रहण कराकर भी उनके दाम्पत्य-जीवन के प्रति सर्वथा उपेक्षा दिखाई है। यशोदा उनके जीवन में आई, एक सन्तान भी हुई, पर इसके सिवाय उसका कोई अता-पता नहीं है। उमने स्नेह एवं अनुराग की आग में वर्धमान की भावनाओं को पिघलाने की चेष्टा की या नहीं ? पति-पत्नी का प्रणय-सम्बन्ध और एक दूसरे के जीवन में कौन कितने समर्पित थे ? इस प्रसंग पर किसी की कलम नहीं चली है । और तो क्या! गह-त्याग के समय नन्दीवर्धन तो दो वर्ष के लिये वर्धमान को रोक लेते हैं किन्तु यशोदा तब कहाँ थी? उसके प्यार का स्वर क्यों मन्द हो गया था? उसके स्नेहभरे आंसुओं का सरोवर क्यों भूख गया था? इसकी कोई कल्पना तक हमारे चरित्र-लेखकों ने नहीं दी। यह भी नहीं कहा जा सकता कि यशोदा तब जीवित भी थी या नहीं ? यदि जीवित थी तो क्या उसके प्यार भरे दिल को ठोकर मारकर प्रवजित होने का कठोर संकल्प वर्धमान कर सके ? या उसी ने अपने समस्त आंसुओं को पीकर विश्वकल्याण के लिये अपने स्वार्थों का बलिदान कर वर्धमान की दीक्षा का पथ प्रशस्त कर दिया ? इस कारुणिक, भावना-प्रधान एवं प्रेरक विषय पर लेखनी चलना चाहती है, पर प्राचीन उल्लेखों के अभाव में उसकी स्याही सूख गई है। और यह प्रश्न, प्रश्न बनकर ही रह गये हैं। एकबार त्याग का संकल्प कर लेने के बाद वर्धमान वापस भोग की ओर नहीं लौटे, बन्धु व सज्जनों के आग्रह पर वे दो वर्ष तक गहिवेष में जरूर रहे, पर रहे बिलकुल त्यागी की भांति, अगार में भी अनगारभूत बनकर ! ब्रह्मचर्य की कठोर साधना तो पहले से ही कर रहे थे, अब तो किसी भी प्रकार की भोग-सामग्री का स्पर्श भी त्याग दिया। इन दो वर्षों का साधना-काल सचमुच में जल-कमल की साधना का आदर्श था । यदि उस चर्चा का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता तो महस्थ-जीवन में उच्चतम आध्यात्मिक साधना की एक स्वस्थ दृष्टि उजागर हो जाती।
मुक्तहस्त से दान
साधना के अन्तिम वर्ष में अर्थात् २६ वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद वर्धमान ने दीन-दुखी एवं याचकों को दान देना प्रारम्भ किया। प्रातःकाल से दान देने बंठते तो एक प्रहर तक मुक्तहस्त से दान दिये जाते, जो भी याचक आता बिना किसी भेद