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६४ | तीर्थंकर महावीर
ग्वाले ने गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगी, देवार्य के चरणों में गिरा । देवार्य तो अब भी मौन थे अन्तर्लीन ! अप्पा अप्पम्मिरओ-स्वयं अपने भीतर में रमण कर रहे थे।
इन्द्र ने प्रभ की वन्दना, संस्तुति कर प्रार्थना की- 'प्रभो ! ऐसे हजारों अज्ञान पुरुष जो आपके साधना-मार्ग से अपरिचित हैं, आपको भयंकर कष्ट देंगे, विविध सत्रास व उपसर्गों से उत्पीड़ित करेंगे, अतः मुझे स्वीकृति दीजिये कि मैं देवार्य की सेवा में रहकर आगत कष्टों का निवारण कर कृतार्थ होता रहूँ।"
इन्द्र की प्रार्थना सुन कर श्रमण महावीर बोले-"देवराज ! ऐसा कभी नहीं हुआ और न कभी होगा, अर्हन्त किसी देवेन्द्र, असुरेन्द्र आदि किसी पर-बल के सहारे साधना कर केवलज्ञान प्राप्त करें । साधना तो स्वयं के बल वीर्य एवं पुरुषार्थ के सहारे ही होती है और स्व-बल पर चलनेवाला साधक ही केवलज्ञान एवं निर्वाण-सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।"
स्वावलम्बन एवं पुरुषार्थ की इस दिव्य घोषणा के समक्ष देवराज विनत हो गये । शायद पहली बार उन्होंने देखा-साधकों के आत्मबल के समक्ष देवराज और स्वर्ग की असीम शक्तियां भी पानी भरती हैं।
विदेहभाव
भगवान महावीर में चरम कोटि की अनासक्ति थी । वे जिस दिन प्रबजित हुये, उसी दिन से उन्होंने एक प्रकार से शरीर को छोड़ दिया था। आर्यसुधर्मा के शब्दों में--"वोस चत्तदेहे" मानो शरीर को व्युत्सर्ग ही कर दिया था। वे अपने ध्येय के प्रति निछावर हो गये थे। शरीर पर क्या बीतती है, कौन प्रहार करता है कौन काटता है और कौन अर्चना करता है ? इसका विकल्प भी कभी उनके मन में नहीं उठा । देह में देहातीत-विदेहदशा में विचरने वाले परम अनासक्त साधक थे वे।
दीक्षा के प्रसंग पर वर्धमान के शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया गया था। पवन जब शरीर से स्पृष्ट हो कर बहता तो एक भीनी सुगन्ध से पूरित हो जाता था। इस सुगन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर आदि जन्तु शरीर पर मंडराते, उनके शरीर के मांस को नोचते, काटते और लहू पीते, पर श्रमण
१ (क) घटना वर्ष वि० पू० ५१२ । () त्रिषष्टि. १०३