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६२ | तीर्थकर महावीर
सब कुछ दे डाला सूर्य जब यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर पहुंच रहा था, तब श्रमण वर्धमान की यात्रा का प्रथम पड़ाव प्रारम्भ हुआ। ज्ञातखण्ड वन से जैसे ही वे आगे बढ़े, एक दीन स्वर पीछे से पुकारता हुआ सुनाई पड़ा। कुछ ही क्षणों में एक कृशकाय, दीन व्यक्ति उनके चरणों में आ गिरा। यह था महाराज सिद्धार्थ का परिचित सोम ब्राह्मण ! आँसुओं की धारा से वह गीला हो रहा था, कातरस्वर में कहा- 'राजकुमार ! आपने वर्षभर महामेघ की तरह असंख्य मणि-मुक्ता-स्वर्ण की वृष्टि की। समस्त जनपद की दरिद्रता धो डाली, मैं ही एक ऐसा अभागा रह गया; जिसे तुम्हारे हाथ का एक दाना भी नहीं मिल पाया । कल्पवृक्ष की छाया में बैठ कर भी दरिद्रता से मेरा पिण्ड नहीं छूटा; मेरे बच्चे दाने-दाने को तरस रहे हैं । दरिद्रता से पीड़ित ब्राह्मणी मुझे चिमटे से मार कर भिक्षाटन के लिये बाहर भगा देती है। गांव-गांव, दर-दर भटकता हुआ मैं अब आपके चरणों में आ पहुंचा हूं। प्रभो ! मेरी दरिद्रता दूर कर दो।" दीन ब्राह्मण महावीर के चरणों से लिपट गया और उन्हें आंसुओं से भिगोने लगा।
श्रमण महावीर ने कहा-"विप्रदेव ! अब तो मैं सब कुछ त्याग चुका हूं, अकिंचन-निष्कंचन हूं। तुम्हें देने जैसा कुछ भी मेरे पास नहीं है।"
ब्राह्मण ने फिर भी प्रभु के पांव नहीं छोड़े और बार-बार कंधे पर हवा में लहराते देवदूष्य की ओर देखने लगा, जैसे कह रहा हो-और कुछ नहीं तो यही दे दो।
परम उदारचेता महावीर प्रभु ने देवदूष्य का एक पट' ब्राह्मण के हाथों में थमा दिया। ब्राह्मण को जैसे कुवेर का खजाना मिल गया, वह खुशियों से नाचता हुआ उस पट को लेकर घर गया । उसकी सारी दरिद्रता घुल गयी।
अकिंचन होते हुये भी महावीर का मन कितना उदार था कि जो एक वस्त्र पट पास में था, उसका भी आधा भाग, उन्होंने एक दीन याचक को दे डाला ।
इस वस्त्र खण्ड (एक पट) को ठीक कराने के लिये ब्राह्मण एक रफगर के पास गया तो उसने पूछा- "यह अमूल्य देवदूष्य तुझे कहां मिला ?' ब्राह्मण ने सही बात बताई । रफूगर ने कहा-"इसका आधा पट और ले आओ तो सम्पूर्ण वस्त्र को जोड़कर पूर्ण शाल तैयार कर दूं।" वस्त्र का लोभी ब्राह्मण फिर भगवान महावीर के पीछे दौड़ा। इस बार उसे मांगने की हिम्मत नही हुई, किन्तु बराबर तेरह मास
१ दुपट्टे या दुशाले की भांति इस देवदूष्य के भी दो पट (खण्ड) थे-ऐसा प्रतीत होता है ।