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साधना के महापथ पर | ६१ आदि पक्षी अनाज चुगते दिखाई देते तो वर्धमान दूर हट कर चले जाते, जिससे कि उन जीवों के चुगने में विघ्न उपस्थित न हो। यदि किसी घर में ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्तों को कुछ पाने की आशा में या याचना करते हुये खड़े देखते, तो उनकी आजीविका में कहीं बाधा न पहुंचे, इस आशय से वे दूर से ही निकल जाते । किसी के मन में द्वेषभाव उत्पन्न होने का वे मौका ही नहीं आने देते थे।
दुर्गम विहारचर्या भगवान ने दुर्गम्य लाढ़ देश की वजभूमि और शुभ्रभूमि दोनों-पर विचरण किया । वहां उन पर अनेक विपदायें आयीं । वहां के लोग भगवान को पीटा करते । उन्हें खाने को रूखा-सूखा आहार मिलता । उतरने के लिये असुविधाजनक स्थान मिलते, उन्हें कुत्ते चारों ओर से घर लेते और कष्ट देते। ऐसे अवसरों पर ऐसे लोग विरले ही होते, जो कुत्तों से उनकी रक्षा करते । अधिकांश तो उलटा भगवान को ही पीटतं और ऊपर से कुत्ते लगा देते । ऐसे विकट विहार में भी अन्य साधुओं की तरह श्रमण भगवान ने कभी दण्डादि का प्रयोग नहीं किया। दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को वर्धमान बड़े क्षमाभाव से सहन करते।
कभी-कभी तो ऐसा होता कि चलते रहने पर भी वर्धमान गांव के निकट नहीं पहुंच पाते थे; ज्यों ही वे गांव के नजदीक पहुंचते, त्यों ही अनार्य लोग उन्हें पीटते और कहते -. "तू यहां से चला जा।"
कितनी ही बार अनार्यदेश के लोगों ने लकड़ियों, मुठ्ठियों, भाले की नोंको, पत्थरों तथा हड्डियों के खप्परों से पीट-पीट कर उनके शरीर में घाव कर दिये ।।
जब वे ध्यान में होते, तो दुष्ट लोग उनके मांस को नोंच लेते, उन पर धूल डाल कर चले जाते । उन्हें ऊंचा उठाकर नीचे पटक देते, उन्हें आसन पर से नीचे ढकेल देते । कुछ लोग उनका मजाक करते ।।
श्रमण वर्धमान साधना-काल में इस प्रकार कठोर तितिक्षा एवं समता से परिपूर्ण तथा सतत जागरूक जीवन जीते रहे। उनके ध्यान-योग की निर्मल धारा साढ़े बारह वर्ष तक निरन्तर प्रवहमान रही।
१ आचारांग ||६-१२ २ आचारांग ३७ ३ वही ६।३।१० ४ वही १२