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साधना के महापथ पर | ६७ भी महावीर वहाँ से प्रस्थान करके कहीं अन्यत्र चले गये। उनकी अनगार-वृत्ति का यह उत्कृष्ट आदर्श था।
आश्रमवासियों की पत्तियों से भगवान महावीर को जो कटु अनुभव हुये, उन्हें ध्यान में रखकर उन्होंने भविष्य के लिए पांच प्रतिज्ञाय की
१ भविष्य में अप्रीतिकारक स्थान में नहीं रहूँगा। २ ध्यान में सतत लीन रहूंगा। ३ सदा मौन रहंगा। ४ हाथ में ग्रहण करके भोजन करूंगा। ५ गृहस्थ का विनय नहीं करूंगा।'
अभय की उत्कृष्ट साधना
प्रेम-क्षेमदर्शी महावीर दुईज्जंतक आश्रम से विहार कर निकट के एक छोटेसे 'अस्थिक ग्राम' में आये । आसपास का वातावरण बड़ा ही भयावह व हृदय को कंपा देने वाला था। गांव के बाहर एक टेकरी पर शूलपाणि यक्ष का मन्दिर था। एकान्त स्थान देखकर महावीर ने वहाँ ठहरने के लिये ग्रामवासियों से अनुमति मांगी। महावीर की दिव्य सौम्य आकृति देखकर लोगों का हृदय द्रवित हो गया, वे बोले"देवार्य ! आप अन्यत्र कहीं ठहर जाइये । यह शूलपाणि दैत्य का चैत्य है, यक्ष बड़ा ही कर है, रात में किसी भी मनुष्य को यहाँ ठहरने नहीं देता। यदि कोई ठहरने की चेष्टा भी करता है तो बस उसे खत्म कर डालता है। इसलिये ऐसे भय-भैरव स्थान पर आपका ठहरना उपयुक्त नहीं होगा।"
स्थान की भयानकता और यक्ष की क्रूरता-दुष्टता की गाथा सुनकर महावीर का संकल्प और दृढ़ हो गया, वे बोले-"आप लोग अनुमति दें तो मैं यहीं ठहरना चाहता हूं।"
__ लोगों को हंसी आई। फिर लगा इस भोले तपस्वी को अभी शूलपाणि यक्ष की क्रूरता का पता नहीं है। वे कहने लगे-"देवार्य ! आप जिस चैत्य में ठहरना चाहते हैं उसके पूर्व वृत्त का पता है आपको ? इसी यक्ष ने इस गांव को श्मशान बना दिया था। जहाँ हम खड़े हैं, वहां हजारों नर-कंकाल पड़े सड़ते
१ घटनावर्ष वि० पू० ५११। -विषष्टि० १०३ ।