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६६ | तीर्थंकर महावीर
आश्रम में अन्य भी अनेक तापस अलग-अलग झोंपड़ों में रहते थे । महावीर की कठोर चर्या और सतत ध्यानलीनता उनके लिये बड़ी आश्चर्यजनक तथा रुक्ष साधना थी। वे महावीर को कुछ विचित्र दृष्टि से देख रहे थे, इसी बीच एक घटना घटी।
उस प्रदेश में दूर-दूर तक अकाल की छाया मंडराई हई थी । वर्षा बहत कम हुई थी। इस कारण घास-फूस भी नहीं उगा था। भूखे-प्यासे पशु आश्रम की झोंपड़ियों का घास उखाड़ने लगे । आश्रमवासी तापस दण्ड लेकर इधर-उधर घूमते और अपनी-अपनी झोंपड़ी की रक्षा करते । उस आश्रम में महावीर ही एक ऐसे थे जो सतत ध्यान में खड़े रहते, उन्हें अपनी देहरक्षा का भी कोई विकल्प नहीं था, तब झोंपड़ी की रक्षा वे कैसे करते ?
महावीर की यह परम निवृत्ति, उपेक्षावृत्ति आश्रमवासियों की आंखों में चुभने लगी। शायद वे सोचने लगे-यह तपस्वी स्वयं को परमहंस प्रदर्शित कर हम मब को निम्नकोटि का जताना चाहता है, कुछ भी हो, महावीर की इस उत्कृष्ट उपेक्षावृत्ति से वे क्षुब्ध हो गये, कई बार मन-ही-मन बड़बड़ाते -महावीर को संकेत कर कहते-"गायें झोंपड़ी को खा रही हैं, आप किस ध्यान में लीन हैं ?" महावीर ने उनके बड़बड़ाने पर कभी ध्यान नहीं दिया । तब वे कुलपति के पास शिकायत लेकर पहुंचे- 'आपने किस औघड़ को आश्रम में ठहरा दिया है । हम गायों को भगाते दिनभर परेशान होते हैं और वह कभी अपनी झोंपड़ी की रक्षा के लिये एक हांक भी नहीं मारता, इस तपस्वी की लापरवाही के कारण गायों का झुण्ड बार-बार उधर घुस आता है और आश्रम की झोंपड़ियों पर टूट पड़ता है, हमारी नाक में दम आ गया है, उसकी झोंपड़ी बचाते-बचाते।"
एक दिन कुलपति स्वयं महावीर के निकट आया और कहा-"कुमार ! यह क्या ? एक पक्षी भी अपने घोंसले के लिये जी-जान लगा देता है, तुम क्षत्रियपुत्र होकर भी अपने आश्रय-स्थान की रक्षा नहीं कर सकते ?'
आश्रमवासियों की वृत्ति और कुलपति के कथन ने महावीर के मन को झकझोर डाला। जिसने देह का मांस और खून खींचते भ्रमर आदि कीट-पतंगों को भी नही उड़ाया; उसे झोंपड़ी की रक्षा का उपदेश कितना हास्यास्पद था। महावीर को लगा-उनकी उपस्थिति आश्रमवासियों की अप्रीति का कारण बन रही है। सबका प्रेम-क्षेम चाहने वाले, मृगराज की भांति मन-इच्छित विहार करने वाले महावीर को वहां रहना इष्ट नहीं लगा। वर्षाकाल के पन्द्रह दिन बीत जाने पर