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५८ | तीर्थकर महावीर उन्होंने तेरह मास तक उस वस्त्र को अपने कन्धे पर डाले रखा। दूसरे वर्ष माधी शरद-ऋतु बीत चुकी, तब उस वस्त्र को त्यागकर वे सम्पूर्ण अचेलक अर्थात् अनावार हो गये। वे बाहुबों को सीधा नीचे फलाकर विहार करते। ठंड से घबराकर कभी बाहुओं को समेटते नहीं, कन्धों से बाहओं को सिकोड़ कर भी नहीं रखते। शिशिर ऋतु में जब पवन जोरों से सांय-सांय करता चलता, जब अन्य श्रमण-भिक्षु किसी छाये हुए स्थान की खोज करते, वस्त्र कंबल आदि लपेटना चाहते और तापस लकड़ियां जला कर शीत दूर करते-ऐसी दुःसह कड़कड़ाती सर्दी में भी वर्धमान खुले स्थान में बिना वस्त्र रहते और किसी प्रकार के बचाव की इच्छा तक नहीं करते। कभी-कभी तो शीतकाल में खुले में ध्यान करते । नंगे बदन होने के कारण सर्दी-गमी के ही नहीं, पर दंस-मशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट भी उन्हें झेलने पड़े। अनिकेत-चर्या
साहसी वर्धमान कभी निर्जन झोंपड़ों में, कभी धर्मशालाओं में, कभी पानी पीने की पोहों (प्याऊओं) में वास करते, तो कभी लुहार की शाला में, कभी मालियों के घरों में, कभी शहर में, कभी श्मशान में, कभी सूने घर में, तो कभी वृक्ष के नीचे रहते और कभी घास की गंजियों के नीचे रात्रि बिताते। ऐसे-ऐसे स्थानों में रहते हुए वर्धमान को नाना प्रकार के उपसर्ग हुए। सर्प आदि जीव-जन्तु और गीध आदि पक्षी उन्हें काट खाते । दुराचारी मनुष्य उन्हें नाना प्रकार की यातना देते, गांव के रखवाले उन्हें हथियारों से पीटते, विषयातुर स्त्रियाँ कामभोग के लिये सतातीं। इस तरह मनुष्य और तियंचों के नाना प्रकार के दारुण, कठोर एवं कर्कश अनेक प्रकार के उपसर्ग उन पर आये। जार पुरुष उन्हें निर्जन स्थानों में देखकर चिढ़ते और पीटते तथा कभी उनका तिरस्कार कर उन्हें दूर चले जाने को कहते । मारनेपीटने पर भी भगवान् समाधि में तल्लीन रहते और चले जाने को कहने पर अन्यत्र चले जाते।" सुधा विजयी
वर्धमान के भोजन-नियम बड़े कठिन थे। नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी,
१ आचारांग सूब अ. उ० पागा० २२-२३ २ आचारांग २०१३-१४-१५ ३ वहीं ६।३१ ४ वहीं ।२।२-३ ५ वहीं २७-८