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साधक जीवन
महावीर के साधक जीवन का यह उज्ज्वल अध्याय समता की साधना से प्रारम्भ हो कर समता की सिद्धि में परिसमाप्त होता है। इसकी वर्णमाला का प्रथम वर्ण 'अभय' से आरम्भ होकर धीरता, वीरता, समता, क्षमा की साधना के साथ 'ज्ञान' (केवलज्ञान) पर जाकर परिपूर्ण होता है । सम्पूर्ण जैन साहित्य में, समस्त तीर्थकरों की साधना में महावीर की साधना का अध्याय एक अद्वितीय है, एक आश्चर्यकारी आभा से दीप्त है । इसका प्रत्येक पृष्ठ, प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक शब्द ध्वनिरहित होकर भी एक ऐसे नाद से गुजित है, जिसमें समता, सहिष्णुता, क्षमा, अभय, धीरता-वीरता, संयम-समभाव, तपस्या, ध्यान, त्याग और वैराग्य का मधुरमधुर नाद प्रतिक्षण, प्रतिपल गुंजायमान हो रहा है। उनके साधक-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है-'अभय' और 'समभाव' । उपसर्गों के पहाड़ टूट-टूट कर गिरे, प्राकृतिक, मानवीय एवं दैविक उपद्रवों एवं संकटों के प्राणघातक तूफान प्रलयकाल की तरह पद-पद पर उमड़ते रहे । साढ़े बारह वर्ष के साधना-काल में जैसे हर पथ पर और हर कदम पर नुकीले विषभरे कांटे बिछाये गये थे। हर दिशा के हर प्रान्तर में दैत्यों के क्रूर अट्टहास हो रहे थे। सिंहों की दहाड़ें गूंज रही थी। अंगारे बरस रहे थे । तूफान मचल रहे थे। संकट, कष्ट और उपद्रव की आंधियाँ आ रही थीं। और महावीर अदम्य साहस, अपराजेय संकल्प और अनन्त आत्मबल के साथ उन कांटों को कुचलते चले गये, संकटों के बादलों को चीरते चले गये, आंधियों के सामने चट्टान बन कर डट गये और दैत्यों को अपनी दिव्यता से परास्त करते चले गये, अनन्त प्रकाश, अनन्त शान्ति और अनन्त आत्मसुख के उस अन्तिम छोर तक । उनका साधक-जीवन बड़ा ही रोमांचक, प्रेरक और शौर्यपूर्ण रहा है । आचार्य भद्रबाहु ने इसीलिये तो इस सत्य को मुक्त मन से उद्धत किया है-"एक ओर तेबीस तीर्थंकरों के साधक जीवन के कष्ट और एक ओर अकेले महावीर के । तेबीस तीर्थंकरों की तुलना में भी महावीर का जीवन अधिक कष्टप्रवण, उपसर्गमय एवं तपःप्रधान रहा।"
भगवान महावीर के साधक-जीवन का वर्णन चरित्र-लेखक आचार्यों ने कालक्रम से करने के लिये चातुर्मास-क्रम की संयोजना की है, और किस-किस चार्तुमास