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साधना के महापथ पर | ५७ में कौन-कौन सी घटनाएं कहां-कहां घटित हुई, इसका विस्तृत लेखा-जोखा भी दिया है। वर्णन की यह परिपाटी ऐतिहासिक जरूर हो सकती है, किन्तु इसमें महावीर की जीवन-कथा का स्वारस्य पाठक के हृदय को रसाप्लावित कम ही कर पाता है। रसधारा उस ग्रीष्मकालीन नदी-सी बहती है, जो कहीं कटि तक जल से भरी है तो कहीं एकदम शुष्क रेतीली । अतः हमारा प्रयत्न भगवान महावीर के साधक-जीवन को मात्र काल-क्रमानुसारी बनाने का न होकर घटनाओं की प्रेरकता, तेजस्विता और समरूपता को बनाये रखने का रहा है। जीवन के समस्त घटनाचक्र को शब्दायित करना भी हमें इष्ट नहीं, मात्र उसी रूप को देखना है, जिस रूप में महावीर की महावीरता, वीतरागता, समता और दयालुता आदि उदात्त वृत्तियाँ अपनी निर्मल ज्योति विखेर रही हैं, जिस दिव्य-स्वरूप का दर्शन कर मानवता धन्यधन्य हो उठती है और उनके जीवन का प्रेरणांश हर जन को जिनत्व की ओर सम्प्रेरित करता है।
आर्यसुधर्मा की वाणी में भ० महावीर की साधक-चर्या
भगवान महावीर के साधक-जीवन का प्राचीनतम वर्णन आचारांग सूत्र में प्राप्त होता है। उस वर्णन की शैली भी प्राचीन सूत्र-शैली जैसी नोट्स-प्रधान है। उसमें कथात्मकता कम, वर्णनात्मकता अधिक है। वर्णन में स्वारस्य, प्रवाह-पूर्णता एवं यथार्थता है। ऐसा लगता है जैसे आर्यसुधर्मा एक प्रत्यक्ष द्रष्टा के रूप में डायरी के पन्नं खोले बैठ हों। आर्यसुधर्मा ने भगवान महावीर की साढ़े बारह वर्ष की साधकचर्या का वर्णन बड़ा ही सजीव, रसप्रद और हृदयस्पर्शी भाषा में किया है। उस शब्दावली के प्रत्येक शब्द में श्रमण भगवान् महावीर की रोमांचकारी कष्ट सहिष्णुता. अपूर्व तितिक्षा, शरीर के प्रति व्युत्सर्गभाव, विदेहदशा तथा अनासक्ति, अनुकूल-प्रतिकूल पसर्गों में मुदित समभाव, तपस्या, अविचल ध्यानयोग एवं अन्तलीनता मुखरित हो रही है। पाठक के सामने महावीर की साधक-चर्या का एक सजीव चित्र उपस्थित हो जाता है। उक्त शब्दावली का कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत किया जाता है।
कठोर तितिक्षा वर्धमान ने दीक्षा ली, उस समय उनके शरीर पर एक ही वस्त्र था।