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जीवन का प्रथमचरण | ४६
दायित्व और इधर तुम मुझे एकाकी छोड़कर जाना चाहते हो? क्या मेरी स्थिति विकट नहीं बन जायेगी? व्यवस्थाचक्र गड़बड़ा जायेगा और चिन्ता तथा परेशानियों के पहाड़ मुझ पर टूट पड़ेंगे । जब तुम २८ वर्ष माता-पिता की सेवा के लिये रुके रहे, तो मेरे लिये भी कुछ नहीं रुक सकते ?"
अग्रज के शब्दों में एक टीस थी, जो वर्धमान के हृदय को बींध गई । वे कुछ बोल नहीं पाये, सिर्फ इतना पूछ सके-"तो क्या मुझे आपके लिए भी रुकना होगा ?"
"हाँ-जरूर !" नन्दीवर्धन ने कहा और वे वर्धमान की आँखों में आंखें गड़ाकर देखने लगे।
"कब तक ?" "कम से कम दो वर्ष तक तो रुकना ही चाहिए।"
"एक शर्त है'-वर्धमान ने अग्रज के कथन को स्वीकार करते हुए अपनी भावना स्पष्ट की - "मैं आपकी भावना का आदर कर दो वर्ष तक घर में और रहूंगा. किन्तु गृह-सम्बन्धी प्रवृत्तियों से बिलकुल दूर । घर में मेरा होना, न होना एक जैसा रहेगा । मेरे निमित्त कुछ भी आरम्भ-समारम्भ न हो, मैं एकान्त साधना में ही अपना समय व्यतीत करूगा।"
नन्दीवर्धन ने दबे स्वर से वर्धमान की शर्त स्वीकार कर ली, यह सोचकर कि घर में अनुज की उपस्थिति-मात्र मुझे अपना कार्य सम्भालने में बल देती रहेगी।
प्रत्येक क्षण अप्रमाद और त्याग में बिताने का आग्रह रखनेवाले वर्धमान दो वर्ष तक और गृह-जीवन में रहने को तैयार हो गये, यह एक आश्चर्यजनक प्रसंग है। किन्तु इसके पीछे महावीर की चिन्तनधारा का एक निर्मल रूप उजागर होता है । तीव्र वैराग्य-वृत्ति और संसार के प्रति उदासीनता होते हुये भी उनमें उत्कृष्ट भ्रातृप्रेम व उदात्त व्यवहार दृष्टि भी थी। वीतरागता के नाम पर बड़ों का अनादर व अवज्ञा करना उन्हें पसन्द नहीं था। साथ ही विचारों की दृढ़ता के नाम पर वे हठवाद को उचित नहीं समझते थे। समय व परिस्थिति पर उचित निर्णय और व्यावहारिक समझौता करना उनकी सहज, सरल, मधुर जीवनदृष्टि का एक अंग था; यह इस घटना से स्पष्ट होता है।