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४८ | तीर्थंकर महावीर विशेपणों से बार-बार सम्बोधित किया गया है। इतनी प्रखर प्रतिभा होते हुये भी वे अपने दैनिक व्यवहारों में बड़े विनम्र, सरल एवं कुशल थे। इसीलिये उनके गृहजीवन के साथ ये विशेषण जोड़े गये हैं-' दक्खे-वे बड़े दक्ष, कुशल थे," "दक्खपइण्णे-अपने संकल्प एवं प्रतिज्ञा में बड़े दृढ़ थे।" "भद्वये-बड़े सरल, भद्र थे, "विणीये-विनीत थे"', माता-पिता के प्रति ही नहीं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के प्रति उनका व्यवहार बड़ा मधुर, करुणा एवं स्नेहपूर्ण रहता था। इस प्रकार उनका वाह्य एवं आभ्यन्तर व्यक्तित्व बड़ा ही अलौकिक व अद्वितीय था।
अभिनिष्क्रमण की तैयारी
भगवान महावीर के सम्बन्ध में यह माना गया है कि वे प्रारम्भ से ही एकान्तप्रिय, चिन्तनशील व विरक्त थे व उनकी आत्मचेतना जागृत थी, इस कारण उनके समक्ष वैराग्य एवं गृहत्याग कर संन्यस्त होने के निमित्त पाकर उनकी अन्तरात्मा जागृत हुई हो, ऐसा कोई उल्लेख भी जैन साहित्य में नहीं मिलता। वे द्रष्टा थे और द्रष्टा के लिये उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती- "उद्देसो पासगस्स नत्यि" ऐसा वे स्वयं ही कहते थे । फिर भी माता-पिता के स्नेहानुबन्धन के कारण उन्होंने एक प्रतिज्ञा कर रखी थी--''उनके जीवित रहते गह-त्याग नहीं करूंगा।" इस कारण वे राजभवन में बैठकर ही 'वन' की साधना कर रहे थे। भवन और वन सर्वत्र ही समता का 'नन्दादीप' प्रज्वलित था।
माता-पिता का जब स्वर्गवास हुआ तब वर्धमान अट्ठाईस वर्ष पूर्ण कर चुके थे। अब वे अपनी प्रतिज्ञा से मुक्त थे, इसलिये गृहत्याग कर एकान्त जीवन विताने के लिये एकाकी श्रमण बनकर विचरण करना चाहते थे । जब बड़े भाई 'नन्दीवर्द्धन' के समक्ष उन्होंने अपनी भावना प्रकट की तो नन्दीवर्द्धन डबडबाई आंखों से वर्धमान को निहारने लगे। वे बोले-'बन्धु ! स्वजन अपने स्वजन के घाव पर कभी नमक नहीं छिड़कता। किन्तु मरहमपट्टी कर घाव को भरने की चेष्टा करता है । तुम्हारे जैसा समर्थ, विवेकी एवं करुणाशील अनुज अग्रज के घावों को और गहरा करे-.. क्या यह उपयुक्त है ? इधर माता-पिता के वियोग का दु:ख, राज्य का गुरुतर उत्तर
१ आचारांग १६१। २ दिगम्बर-परम्परा के कुछ काव्य ग्रन्थों में वर्धमान की प्रव्रज्या के समय माता-पिता के जीवित होने तथा निशला के करुणविलाप का काव्यात्मक चित्रण किया गया है-देखें भट्टारक सकलकीति-कृत वीरवर्धमान-परिन ।