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जीवन का प्रथमचरण | ३५ ये मंगलमय स्वप्न जन्म धारण करनेवाले पुत्र की महानता के सूचक होते हैं । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह भी माना जा सकता है कि महान् आत्मा के उदरप्रवेश के समय माता की मनोभावना इतनी पवित्र, भव्य एवं उदार हो जाती है कि उच्च-से-उच्च कल्पना एवं संकल्प उसके हृदय-सागर में हिलोरें लेने लगते हैं।
त्रिशलादेवी इन महान स्वप्नों को देखकर जागृत हो गई। अपूर्व उल्लास से उसके रोम-रोम पुलक उठे। प्रसन्नता के मारे उसके पाँव धरती पर नहीं टिक रहे थे। उसने उसीसमय दूसरे शयन-कक्ष में सोये राजा सिद्धार्थ को जगाया और गद्गद स्वर से अपने शुभ स्वप्नों की बात कही। राजा प्रसन्नता में झूम उठा और दोनों ही इन शुभस्वप्नों के फल पर विविध चर्चाएं करते हुए रातभर जगते रहे। प्रातःकाल राजा सिद्धार्थ ने स्वप्न-फल-पाठकों को बुलाया और रात्रि के स्वप्नों की विस्तृत व्याख्या पूछी। स्वप्नपाठकों ने उनका फल बताया और कहा--"इन चौदह प्रकार के स्वप्नों से यह सूचित होता है कि त्रिशलादेवी अत्यन्त भाग्यशालिनी माता बननेवाली है, यह पुत्र तीर्थकर या चक्रवर्ती बनेगा। आपके कुल, वंश एवं राज्य की सब प्रकार से सुख-समृद्धि की वृद्धि करने वाला होगा।''
स्वप्नफल सुनकर समूचा राज-परिवार खुशियों में झूम उठा। कुछ ही दिनों में सबको यह अनुभव होने लगा कि स्वप्न-पाठकों की भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य हो रही है। राजा सिद्धार्थ के राज्य-कोष में सर्वतोमुखी अभिवृद्धि होने लगी, चारों ओर से प्रगति और प्रसन्नता के समाचार आने लगे। यह देखकर सिद्धार्थ एवं त्रिशला के मन में कल्पना उठी-"जब से यह पुत्र गर्भ में आया है, तब से अपने कुल, वंश एवं सम्पूर्ण राज्य में धन-धान्य, भूमि, स्वजन आदि की निरन्तर वृद्धि होती जा रही है, यह सब इस गर्भ का ही पुण्य प्रभाव है, अतः पुत्र का जन्म होने पर इसका नाम यथानाम तथागुण 'वर्धमान' रखेंगे।"२
मात-भक्ति के संस्कार त्रिशला की गर्भावस्था के लगभग साढ़े छः मास ही बीते होंगे कि एक बड़ा ही विचित्र प्रसंग घटित हुआ। एक दिन अचानक गर्भस्थ शिशु का हलन-चलन व स्पन्दन बन्द हो गया। गर्भ को सहसा स्थिर व निस्पन्द हुआ देखकर त्रिशलादेवी चिन्तित हो उठी। हृदय पर अज्ञात आशंका का ऐसा आघात लगा
१ कल्पसूत्र ७१। २ दिगम्बर आचार्यों ने १४ स्वप्न के स्थान पर १६ स्वप्न माने हैं।
-उत्तरपुराण ७४।२५८