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३८ | तीपंकर महावीर के गवाक्ष में बैठी जब नगर की हलचल का अवलोकन करती तो कहीं गरीबों का उत्पीड़न, कहीं मूक-पशुओं का करुणक्रन्दन व बलिदान और कहीं दास-दासियों की व्यथा भरी परतन्त्र जिन्दगी देखती, तब उसके मन में ये मनोविकल्प जगने लगते "मैं सम्पूर्ण राज्य में और हो सके तो पूरे देश में अमारि-घोषणा करवा दें। कोई भी किसी मक पशु-पक्षी का वध न करे। राजकर्मचारी किसी गरीब को, दीन को उत्पीडित न करें। जेलखानों से बंदियों को मुक्त कर उन्हें अपने स्वजनों के पास भेज दूं। भूखे और दीन-गरीबों को खूब दान दूं। दासों (गुलामों) को दासता के बंधन से मुक्त कर दूं। स्वधर्मी बन्धुओं एवं परिवारजनों को मधुर भोजन कराऊँ आदि ।"१
त्रिशलादेवी के इन उत्तम मनोभावों को जानकर सिद्धार्थ राजा के अन्तः करण में गहरी हर्षानुभूति होती। वह स्वयं भी श्रमणोपासक था। दान व करुणा के संस्कार उसकी क्षत्रियोचित वीरता के साथ घुलमिल गये थे। अतः रानी की इन मनोभावनाओं को उसने प्रसन्नता के साथ पूर्ण किया।
जन्मोत्सव और नामकरण
लगभग नव मास और साढ़े सात दिन की गर्भस्थिति पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला १३ (ईस्वी पूर्व ५६९, ३० मार्च) के दिन त्रिशलादेवी ने एक दिव्य पुत्ररत्न को जन्म दिया। त्रिशला की निकटतम परिचारिका प्रियंवदा ने राजा सिद्धार्थ को पुत्रजन्म की बधाई दी। इस शुभ संवाद की खुशी में सिद्धार्थ ने दासी को अपने शरीर पर के समस्त आभूषण (मुकुट को छोड़कर) आदि तो दे ही डाले, साथ ही उसे जीवनभर के लिये दासता के बंधन से भी मुक्त कर दिया। मुक्ति के संदेशवाहक महावीर के जन्मक्षण से ही जैसे मुक्ति का यह प्रथम अभियान प्रारम्भ हो गया । वे विश्व के लिये प्रकाशज बनकर अवतरित हुए, इसलिये यह सहज ही था कि उनके जन्म-प्रसंग पर एक बार सम्पूर्ण विश्वमंडल किसी अपूर्व प्रकाश से जगमगा उठे। सिर्फ मनुष्यलोक और स्वर्गलोक की धरती ही नहीं, किन्तु निरंतर अंधकारमय रहने वाली नरक की भूमि पर भी प्रकाश की किरणें इस दिव्यता से फैली कि वहां के निवासी क्षणभर के लिये प्रकाश का दर्शन कर पुलक-पुलक हो उठे।
महापुरुषों के जन्मकाल में इसप्रकार के सुखद व आनन्ददायी क्षणों का आना कोई आलंकारिक वर्णन या सुखद कल्पना मात्र नहीं, किन्तु एक वास्तविकता
१ कल्पसूत्र ८२२ स्थानांगसूत्र ३