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जीवन का प्रथमचरण | ३७
माता के करुण विलाप से शिशु महावीर के मन पर एक और भी असर पड़ा। सोचा-"मेरे कुछ क्षण के वियोग की आशंका से ही माँ का हृदय जब इस प्रकार तड़पने लग गया और हा-हाकार करने लग गया तो मैं जब बड़ा होकर प्रवजित होऊंगा तो मां के मन की क्या स्थिति होगी ? माता को कितनी असह्य पीड़ा और कितना दारुण संताप होगा? माता के हृदय को यों तड़पाना क्या उचित होगा ? मातृ-स्नेह के उमड़ते वेग में महावीर ने संकल्प कर लिया-"जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, मैं इनकी सेवा करूंगा, इनकी आँखों के सामने गृहत्याग कर श्रमण नहीं बनूंगा।"
इस घटना में अनेक प्रश्नों को अवकाश हो सकता है। पर यह तो मानना चाहिये कि महावीर, जिन्हें हम निवृत्ति-परायण एवं वीतराग पुरुष के रूप में चित्रित कर रहे हैं, अपने कर्तव्य एवं माता-पिता के उपकार के प्रति कितने जागरूक हैं कि दीक्षा से भी अधिक माता-पिता की सेवा को महत्व दिया। उन्होंने आत्मसाधना से पहले कर्तव्य-पालन का पाठ पढ़ाया और आध्यात्मिकता के नाम पर सामाजिक दायित्व को न भुलाने का संदेश दिया।
माता के मानसिक संकल्प "होनहार विरवान के होत चीकने पात" और "पूत के पैर पालने" आदि लोकोक्तियों में यदि कुछ सत्य है तो मानना चाहिए कि महावीर के गर्भ में आने से राजा सिद्धार्थ के पूरे राज्य व परिवार का वातावरण ही बदल गया था। वायुमंडल में ही जैसे स्नेह, करुणा और शुभ विचारों की तरंगें लहराने लग गई थीं।
आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है-"गर्भ-प्रभाव से त्रिशलादेवी के मन में अनेक प्रकार के उत्तम दोहद (गर्भवती की मनोकामना) उत्पन्न होने लगे। वह राजमहलों
१ (क) कल्पमूत्र ८७ । (ख) विषष्टि शलाका पुरुप चरित्र पर्व १०, सर्ग २ २ सामान्य लोक-व्यवहार की दृष्टि से गर्भस्थ शिशु का चिन्तन और आचरण
इतना विकसित हो पाना कठिन व असंगत लग सकता है, किन्तु हमें भूल नहीं जाना है कि महावीर एक लोकोत्तर पुरुष के रूप में अवतरित हुए। गर्भदशा में ही उन्हें तीन ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, एवं अवधिज्ञान प्राप्त थे। उनके जीवन की अगणित अलौकिक घटनाओं की कड़ी में ही यह घटना जड़ी हुई है। दिगम्बर-परम्परा इस घटना पर सर्वथा मौन है।