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जीवन का प्रथमचरण | ४५
हैं ? और मेरी पाठशाला में बिना मेरी अनुमति के मेरे छात्रों से क्यों, किसलिये इतने जटिल प्रश्न पूछ रहे हैं ? अनेक अव्यक्त प्रश्न आचार्य के मन को कचोटने लगे।
__ आचार्य-सहित पूरी पाठशाला वर्धमान के चरणों में झुक गई। सचमुच ज्ञानी कभी बोलकर अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करता। राजा सिद्धार्थ ने जब यह चमत्कारी घटना सुनी तो वे उल्टे पाँवों दौड़े आये, स्नेह-विह्वल होकर राजकुमार को गोदी में उठा लिया और सिर पर हाथ फिराकर बोलने लगे-"कुमार ! मैंने तुम्हारी अपूर्व ज्ञानशक्ति को नहीं पहचाना, मुझे क्षमा कर देना। पर तुमने भी कभी नहीं बताया। इतनी गम्भीरता किस काम की ?"
___ वर्धमान धीरे-से मुस्करा भर दिये और पिता के साथ पुनः राजमहलों में चले गये।
यौवन के द्वार पर
विद्याशाला से वापस आकर कुमार वर्धमान की क्या, कैसी प्रवृत्तियाँ रहीं, वे कहाँ रहते, क्या करते और किमप्रकार के मित्र-परिवार के बीच समय बिताते इसका लेखा-जोखा महावीर से सम्बन्धित जीवन-चरित्र साहित्य में कहीं नहीं मिलता। पर, बचपन से योवन के द्वार पर पहुंचने तक की यात्रा में वे चुपचाप आँख मूदे चले हों अथवा राजमहलों या एकान्त उद्यानों में ही बैठे ध्यान लगाते रहे हों-यह भी कम सम्भव है। उनकी जागृत-प्रज्ञा, धर्म और समाज के प्रति क्रान्तदृष्टि अवश्य ही भीतर में एक नव-निर्माण की भूमिका बना रही होगी। समाज में धर्म के नाम पर चल रहे अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ, यज्ञों में क्रूर पलु-बलि, नारी का अवाछित अपमान और शूद्रजातियों के प्रति अमानवीय व्यवहार-ये सब ज्वलन्त समस्याएं वर्धमान की बुद्धि और हृदय को अवश्य ही झकझोरती रही होंगी। वे अन्त प्टि से इन समस्याओं की गहराई में जाते होंगे और एक अनुकम्पा और दिव्यकरुणा से उनका मन और आँखें डबडबा आती होंगी। वे उनके स्थायी समाधान का दृढ़संकल्प भी करते रहे होंगे । अवश्य ही इस वयःसन्धिकाल में महावीर एक अन्तर् संघर्ष में से गुजरे होंगे और समता को नई सृष्टि की पृष्ठभूमि बनाते रहे हों-यह सहज कल्पना होती है । इस सन्दर्भ में हो सकता है कुछ क्रान्तिकारी घटनाएं भी घटी हों, पर साहित्य के पृष्ठों पर वे आज अंकित नहीं हैं, इसलिये किसी घटना की नवसर्जना करना अब तक के चरित्रकारों के साथ न्याय नहीं होगा।