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२२ | तीर्थंकर महावीर दो टुकड़े अलग-अलग जा गिरे । दूर खड़े दर्शक कुमार का साहस देखकर स्तब्ध रह गये, कुमार त्रिपृष्ठ के जयघोषों से गगन मण्डल गूंज उठा।'
सम्राट अश्वग्रीव ने कुमार त्रिपृष्ठ के अद्भुत शौर्य की कहानी सुनी तो वह दिग्विमूढ़-सा रह गया । भय व ईर्ष्या की आग में जल उठा । उसने कुमार को अपने पास बुलाया । स्वाभिमानी कुमार ने जाने से अस्वीकार कर दिया, तो अश्वग्रीव सेना लेकर युद्ध करने चढ़ आया । कुमार के अद्भुत पराक्रम के समक्ष अश्वग्रीव निस्तेज और निर्वीर्य हो गया । अन्त में उसने कुमार का सिर काटने अपना चक्र फेंका, किन्तु त्रिपृष्ठ ने चक्र को पकड़ लिया, और उल्टा अश्वग्रीव पर फेंक कर उसी का सिर काट डाला।
विजयोल्लास में देवताओं ने पुष्पवृष्टि की और त्रिपृष्ठकुमार को इस अवसर्पिणी काल का प्रथम वासुदेव घोषित किया । 'अचल' प्रथम बलदेव बने ।
एक दिन कोई प्रसिद्ध संगीत मंडली वासुदेव की सभा में आई। मधुर संगीत का कार्यक्रम चला । श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो गये । बीन पर जैसे नाग झूमता है, उन मीठी स्वर-लहरियों पर श्रोतागण झूम-झूम उठे। रात की नीरव शान्ति में संगीत और भी नशीला होता गया । वासुदेव को मीठी झपकियाँ आने लगीं। सुख शय्या पर आराम करते हुये वासुदेव ने शय्यापालक से कहा-"मुझे जब नींद लग जाय, तो संगीत का कार्यक्रम बन्द कर देना।"
वासुदेव गहरी नींद में सो गये, संगीत की मस्ती में डूबा शय्यापालक उनके आदेश को विसर गया। रातभर सभा जमी रही। समां बंधा रहा । प्रातः जब
१ महावीर चरित्रकारों ने यहां एक बड़ी रम्य मनोवैज्ञानिक कल्पना दी है, कि
शस्त्ररहित कुमार त्रिपृष्ठ ने जब सिंह को घायल कर डाला तो वह पड़ा-पड़ा तड़प रहा था, उसकी आँखों से आंसू बहने लगे । यह देख कर कुमार के सारथि ने मृगराज को आश्वासन दिया--"मगराज ! शायद तुम यह सोच कर खिन्न हो गये हो कि तुम्हारी हुंकार के सामने जहां बड़े-बड़े शस्त्रधारी योद्धा भी मैदान छोड़ गये, वहाँ इस निःशस्त्र युवक के हाथों तुम्हारी मृत्यु हो गई, किन्तु घबराओ नहीं, यह युवक भी तुम्हारी तरह ही एक महान नर-सिंह है। ऐसे पराक्रमी पुरुष के हाथ से मृत्यु पाना भी सौभाग्य की बात है।"
सारथी के मधुर शब्दों से सिंह की आत्मा को शान्ति मिली। यही सारथि भगवान महावीर के भव में इन्द्रभूति गणधर बने, जिन्होंने सिंह के जीव हालिक किसान को उपदेश देकर प्रतिबुद्ध किया था।