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साधना की पूर्व साधना १९ "दृष्टो । तुम्हारे सिर भी कौठ वृक्ष की भांति यों ही ठोकर मारकर फोड़ डालता, किन्तु आनी कुल मर्यादा का विचार मुझे रोक रहा है। उस दुष्ट कुमार को कह दो, भाई के साथ धोखा करने का परिणाम अच्छा नहीं होगा।"
विश्वभूति का क्रोध देखकर पहरेदारों को कंपकपी छूट गई, किन्तु कुमार ने दूसरे ही क्षण अपने उमड़ते हुए क्रोध का ज्वार रोक लिया, घृणा, ग्लानि और विषाद से खिन्न हुआ वह सीधा ही एक धर्मगुरु के पास पहुंच गया और आत्म-शान्ति का उपदेश सुना । मन जव शान्त हुआ, तो कुमार ने वहीं गुरु के पास दीक्षा ले ली। दीक्षा या प्रव्रज्या से काम-क्रोध आदि मनोविकार तात्कालिक रूप में दब सकते हैं, किन्तु सर्वथा निर्मूल हो पाने कठिन हैं, उसके लिये तो दीर्घ ज्ञानाराधना आवश्यक है । कठिन तपश्चर्या से शरीर सूख भी जाये किन्तु जब तक अहंकार आदि का सूक्ष्म रस न सूखे तब तक साधना सर्वथा विकारशून्य नहीं हो सकती, अपितु कभी-कभी दुगुने वेग से वे विकार उद्दीत भी हो उठते हैं, जैसे कि गर्मी से तप्त भूमि पर प्रथम वर्षा होते ही हरियाली अधिक वेग के साथ अंकुरित हो उठती है । मुनि विश्वभूति के जीवन में ऐसा ही एक प्रसंग आ खड़ा हुआ।
विश्वभूति अब साधु बन गये, कठोर साधना और दीर्घतपस्या करके शरीर को जर्जर कर डाला । एकबार वे मासखमण को तपस्या का पारणा लेने किसो नगर में भ्रमण कर रहे थे । वहाँ पर विशाखनन्दी कुमार भी आया हुआ था। उसके सेवकों ने जब जर्जर कृशकाय मुनि को देखा तो पहचान लिया, उन्होंने तुरन्त विशाखनन्दी को खबर दी, विशाखनन्दी आया, देखा, एक महान योद्धा विश्वभूति आज अत्यन्त दुर्बल जीर्ण-शीर्ण हुआ धकियाता हुआ-सा चल रहा है। पास में ही एक गाय खड़ी है जो उसे धक्का देकर गिरा देती है। यह करुण-दृश्य देखकर विशाखनन्दी को मजाक मूझा उसने व्यंग कसते हुये कहा-"मुने ! एक पादप्रहार से कौठ (वृक्ष) को धराशायी करने वाला वल आज कहाँ चला गया ? अव तो एक गरीब गाय भी तुमको धक्का देकर गिरा देती है ?"
राजकुमार के व्यंग वचन से मुनि को क्रोधाग्नि भड़क उठी। सुप्त राजसी संस्कार उद्दीप्त हो उठे। वे बोले--."दृष्ट ! यहाँ भी आ पहुंचा तू ! मैं साधु बन गया, फिर भी मुझसे मजाक ! उपहास ! मेरी क्षमा और तपस्या को निर्बलता समझ रहा है ? अघम !'' और तत्क्षण मुनि ने गाय को दोनों मींग पकड़ कर घास के पूले की तरह ऊपर उछाल कर विशाखनन्दी की तरफ फेंक दिया । विशाखनन्दी घबराकर भाग गया।
पहले किया गया धोखा और अपमान का स्मरण कर मुनि को क्रोध का वेग चढ़ता ही गया। उन्होंने क्रोधाविष्ट हो मन-ही-मन संकल्प किया-"मेरी तपस्या