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२०-सम्यक्त्वपराक्रम (३) कर्म को दुख रूप मानकर आत्मा को कर्महीन करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
लोग समझते है कि हमे अमुक ने दु ख दिया है या अमुक ने मारा है । मगर ज्ञानीजन कहते हैं कि कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता । इसके साथ ही ज्ञान पुरुष कहते हैं कि तुम दु.व देने या मारने के कार्य का बाह्य कारण तो देखते हो मगर उसका आन्तरिक कारण नही देखते । तुम यह तो कहते हो कि मुझे रोग हुआ है लेकिन यह क्यो नही देखते कि रोग आया कहा से है ? यद्यपि रोग के कीटाणु हवा मे भी आ सकते हैं तथापि अगर तुम सावधानी रक्खो और रहन-सहन तथा खानपान वगैरह का ध्यान रक्खो तो रोग हो क्यो हो ? तुम जानते हो कि फला चीज हानिकारक है फिर भी उसे खाना क्या रोग को आमन्त्रण देने के समान नही है ? अत: यदि सावधानी रखी जाये तो रोग उत्पन्न ही क्यो हो ? यही बात प्रत्येक कार्य के लिए लागू करो और कम के विषय मे भी यही देखो कि अगर सावधानी रखी जाये और प्रयत्न किया जाये तो कर्म आयें कैसे? और आत्मा को दुख हो कैसे ? आत्मा को दुःख न हो इसीलिए यह प्रार्थना की गई है -
श्वासोश्वास विलास भजन को, दृढ़ विश्वास पकड़ रे। अजपाभ्यास प्रकाश हिये विच, सो सुमरण जिनवर रे ।।
भक्त कहते हैं-दु.ख से बचने के लिए परमात्मा का “भजन करो । अगर कोई कहे कि मुझे तो समय ही नही मिलता, तो फिर भजन किस प्रकार करूं ? ऐसा कहने वालो को भक्त उत्तर देते हैं - परमात्मा का भजन करने के लिए