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२०८ - सम्यक्त्वपराक्रम
करने वाले की भावना पाप कराने की नही है, दुखी का दुःख दूर करने की है । ऐसी स्थिति मे करुणा करने वाले को किस प्रकार पाप लग सकता है ? अतएव करुणा करने मे भावना रखो । श्रनुकम्पा करने में पाप है यह मान्यता ही भूलभरी है। अनुकम्पा करने वाला और दान देने वाला किसी दिन सुवाहुकुमार जैसी ऋद्धि प्राप्त कर सकता है, अन्यथा पुण्य संचय करने में तो सदेह ही नही है । इसलिए अनुकम्पा करने का प्रयत्न करो। अनुकम्पा करने मे कल्याण ही है । अपने घर से ही अनुकम्पा आरम्भ करो। ज्यो ज्यो अनुकम्पा बढती जायेगी त्यो त्यो विश्वमैत्री बढती जाएगी। अतएव सब जीवो के प्रति अनुकम्पा और दान की वृत्ति रखने का ध्यान रखो । इसी मे कल्याण है ।
कहने का आशय यह है कि जो आनन्द स्वतन्त्रता मे है, वह परतन्त्रता मे नही । अतएव स्वतन्त्रता को मत भूलो । आज के लोग परावलम्बी बनते जा रहे है और उनकी आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ रही हैं कि उन्हे स्वतन्त्रता के विषय मे विचार करने की फुर्सत ही नही मिलती । ऐसी पराधीन दशा मे दूसरो की अनुकम्पा किस प्रकार हो सकती है ? दूसरे जीवो के प्रति अनुकम्पा करने के लिए अपनी आवश्यकताएँ कम करना आवश्यक है । अपनी आवश्यक्ता कम करना अपने सासारिक बन्धनो को कम करने के समान है । अतएव स्वतन्त्रता की भावना को हृदय में स्थान देकर सासारिक बन्धनो को तोडने का प्रयत्न करो। ऐसा करने में ही स्व-पर कल्याण है ।