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चौतीसवां बोल-२३७
“उपधि दो प्रकार की होती है- औधिक उपधि और औपग्रहिक उपधि । जिसके बिना काम चल ही नही सकता अर्थात् जिस वस्तु की अनिवार्य आवश्यकता रहती है, वह पौधिक उपधि है और जो वस्तु किसी विशेष कारण से लेनी पडती है और कारण मिटने के बाद त्याग दी जाती है, वह औपग्रहिक उपधि कहलाती है। यह बात गृहस्थो की उपधि के लिए भी लागू पडती है और साधुओ की उपधि के लिए भी । साघु जघन्य बारह, मध्यम चौदह और उत्कृष्ट पच्चीस उपधि-उपकरण रख सकता है । इससे अधिक नही रख सकता । यहा निर्ग्रन्थधर्म का ही वर्णन किया जा रहा है अतएव यह मर्यादा निर्ग्रन्थ साधु के लिए बतलाई गई है । यहाँ गृहस्थधर्म का वर्णन नहीं किया गया है परन्तु इस कथन के आधार पर गृहस्थो को भी विचार करना चाहिए और जितनी उपधि कम हो सके उतनी का त्याग करना चाहिए।
तुम श्रावक लोग जो सामायिक करते हो सो उपधि के त्याग का अभ्यास करने के लिए ही है । अगर आज तुम उपधि का त्याग करने में समर्थ नही हो तो उपधिरूप उपाधि में रहते हुए भी अभिमान मत करो । बल्कि उपधि के प्रति ममत्व कम करके परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोडो। ऐसा करने से एक दिन उपधि का त्याग करने में सामर्थ्यवान् हो सकोगे। यह दुख की बात है कि तुम लोग संसारसबन्धी कार्यों में बहुत समय व्यतीत कर देते हो, परन्तु परमात्मा को पसन्द आने योग्य कार्यों में समय नही लगाते। अगर तुम चाहो तो व्यावहारिक कार्यों के साथ परमात्मा का नाम स्मरण करके तथा परमात्मा को पसन्द आने वाले सत्कार्य करके आत्मकल्याण कर सकते हो । ऐसा होने पर