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चौतीसवां बोल-२४५
- इस साधारण से मालूम होने वाले उदाहरण मे भी बहुत सार छिपा है । इस उदाहरण से सगठन के साथ-एकतापूर्वक रहने का उपदेश मिलता है । अगर समाज मे ऊपर के उदाहरण का अनुकरण किया जाये तो बहुत सुधार हो सकता है । अगर कोई मनुष्य किसी दुर्गुण के कारण समाज से वहिष्कृत हुआ हो और फिर वह प्रायश्चित्त लेकर, दुर्गुण का त्याग करके फिर समाज में सम्मिलित होना चाहे तो उसे समाज मे पूर्ववत् स्थान मिलना चाहिए । परन्तु आज समाज की स्थिति अस्तव्यस्त हो गई है और समाजव्यवस्था ठीक तरह नही चल रही है । समाजसेवको को विचार करना चाहिए कि सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए समाज की व्यवस्था ठीक करने की सर्वप्रथम आवश्यकता है । समाज की व्यवस्था बरावर सुधर जाएगी तथा समाज में सब को समान स्थान मिलेगा तो समाज की दशा भी अवश्य सुधर जाएगी।
कहने का आशय यह है कि आत्मा और परमात्मा मे कर्मरूपी उपधि के कारण ही भेद है । जो व्यक्ति कर्म की उपधि का त्याग कर देता है, वह परमात्मामय बन जाता है । इसीलिए परमात्मा के प्रति ऐसी प्रार्थना की गई है कि
प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो । एक नदिया एक नार कहावत भैलो नीर भरो, मिलके दोऊ एक रूप भई तो सुरसरि नाम परो ।प्रभुजी.। एक लोहा पूजा मे राखत एक घर बधिक परो। पारस तामे मेद ना राखत कचन करत खरो प्रभुजी ।