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२४४-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
रहे हो ? अहकार विनाश का मूल कारण है, ऐसा समझ कर अहकार का त्याग करो और नम्रता धारण करो।
आम को कोई पत्थर मारे या लकडी मारे, वह तो सव को मीठे फल देता है। ग्राम किसी पर क्रोध नही करता और न ऐमा अभिमान हो करता है कि मैं सब को मीठे फल देता हूं। इसके विपरीत तुम सार-असार का विवेक कर सकने वाली वुद्धि-शक्ति के धनी हो फिर भी साधारण-मी वात मे क्रुद्ध हो जाते हो। और धन के मद मे चूर होकर व्यर्थ ही अहकार का प्रदर्शन करते हो । जरा विचार करा, यह कितनी बुरी बात है । क्रोध-अहकार वगैरह आत्मा के विकार हैं । इस विकाररूप उपधि का त्याग करने मे ही लाभ है। भगवान् महावीर ने भी यही बतलाया है कि उपधि का त्याग करने से हानि नही वरन् लाभ ही होता है । उपधि का त्याग करने से आत्मा निःसक्लेग बनता है । आत्मा और परमात्मा मे उपधि के कारण ही अन्तर है। उपधि का सर्वथा विनाश हो जाने पर आत्मा और परमात्मा के बीच किसी प्रकार का अन्तर नही रहेगा।
पानी तो सरोवर मे भी होता है और एक पात्र में रखा हमा पानी भी पानी ही है । पानी दोनो जगह है, मगर भिन्न-भिन्न स्थिति मे होने के कारण उसमे भेद है । अगर पात्र का पानी सरोवर के पानी में मिला दिया जाये तो दोनो मे क्या भेद रह जायेगा ? फिर तो दोनो पानी एकमेक हो जाएंगे। जहा तक पात्र की उपघि थी वही तक भेद था । पात्र की उपघि हटते ही किसी प्रकार का भेद नही रहा ।