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२३०-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
धर्म वीर का धर्म है। इस वीर धर्म में कायरता के लिए लेश मात्र भी गुजाइश नही । जिसमे वीरता होगी वहीं जनधर्म का भलीभाति पालन कर सकेगा। आज कायरता को पोषने का जो अपव द जैनधर्म पर लगाया जाता है, उसका प्रधान कारण जैन कहलाने वालो का कायरतापूर्ण व्यवहार हो है । अगर जैनधर्म का यथोचित पालन किया जाये तो देश, समाज और धर्म का उत्थान हुए बिना नहीं रह सकता । धर्मपालन के लिए वीरता और धीरता की आवश्यकता रहती है । जो मनुष्य अपनी ही रक्षा नही कर मकता वह दूसरो की रक्षा कैसे कर सकता है ? देश, समाज और धर्म के उत्थान के लिए सर्वप्रथम नैतिक वल प्राप्त करने की आवश्यकता है।
तुम श्रावकधर्म का गम्भीर विचार करो और उसका भलीभाति पालन करने का प्रयत्न करो। अगर तुम सभी वस्तुओ के त्यागी होते या साधु होते तो तुम्हे इस विषय में इतना अधिक कहने की आवश्यकता न होती । तुम गृहस्थश्रावक हो और इसीलिए तुम्हे समष्टि का ध्यान रखकर नियम बनाने चाहिए । व्यक्तिगत प्रश्नो को एक ओर रखकर समष्टि के हित का श्रावको को खास ध्यान रखना चाहिए। अगर तुम अपने गृहस्थधर्म का बराबर पालन करोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा । अव मूल विषय पर आना चाहिए ।
उपधि की व्युत्पत्ति करते हुए शास्त्रकार कहते हैजिसके प्रताप से आत्मा दुर्गति को प्राप्त हो वह उपधि है। श्रीस्थानागसूत्र में उपधि के तीन भेद कहे गये हैं (१) कर्मउपधि (२) शरीर उपधि और (३) बाह्य भंडोप्रकरण उपधिः ।