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चौतीसवां बोल-२३१
कर्म भी उपधि है और इसी उपधि के कारण आत्मा परमात्मा से बिछुडा हुआ है । कर्म उपधि के कारण ही आत्मा को सुख-दुख का अनुभव करना पडता है। परन्तु सुख-दुख बाहर से आये है, इस प्रकार आत्मा का मानना भूल है। कर्म-उपाध के कारण हो आत्मा को शरीर धारण करना पड़ता है । आत्मा जब शरीरधारी बना है तो उसे अनेक बाह्य वस्तुओ की भी आवश्यकता रहती है । आत्मा इन बाह्य वस्तुप्रो को अपनी मानकर भयानक भूल करता है । मकान लकडी, पत्थर, मिट्टी आदि से बनता है । परन्तु आत्मा उसे अपना समझ बैठता है। जबतक मकान, लकड़ी पत्थर आदि से नहीं बना था तब तक आत्मा को उसके प्रति ममत्व भाव नही था । परन्तु घर जब तैयार हो गया तब आत्मा ममता के कारण उसे अपना मानने लगा । इस प्रकार कर्मउपधि और शरीरउपधि के कारण ही बाह्य उपकरणो की आवश्यकता उपस्थित होती है और फिर उन बाह्य उपकरणो के प्रति ममता का भाव जागृत हो जाता है। शास्त्र के कथनानुसार यह उपधि ही उपाधि है । यह उपधि आत्मा को ससार -जाल में फंसाने वाली है । अतएव उपधि के त्याग का यथाशक्ति प्रयत्न करो और वाह्य पदार्थों के प्रति जो ममत्वभाव बन्ध गया है उसे शक्य प्रयत्न द्वारा दूर करो।
प्रश्न किया जा सकता है कि उपधि का त्याग किस प्रकार किया जाये और पदार्थों सम्बन्धी ममता का निवारण किस प्रकार किया जाये ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्म की आराधना करने से उपधि का त्याग भी हो सकता है और ममत्व भी दूर हो सकता है . धर्म दो प्रकार का