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चौतीसवां बोल-२२७
है तो बहिलकुमार को भी हिस्सा मिलना चाहिए, परन्तु उन्होने भी सता के सामने मस्तक झुका दिया। इतिहासवेत्ताओ का कथन है कि गणराज्य प्रजातन्त्र राज्य के समान था । परन्तु दूसरे राजा स्वच्छन्द थे और गरीबो पर अन्याय करते थे ।
गणराजाओ की सेना का नेतृत्व चेटक ने ग्रहण किया। वास्तव मे धार्मिक व्यक्ति धर्म की रक्षा के लिए सदा आगे ही रहता है। आज के प्रमुख तो कार्य करने के समय नौकरों को आगे कर देते हैं परन्तु चेटक राजा स्वय अगुवा बना और उसने अपनी युद्धकला का परिचय दिया राजा चेटक ने अपनी अचूक वाणावली के द्वारा कोणिक के भाइयो को शिरच्छेद कर डाला।
अपने भाइयो के मर जाने से कोणिक भयभीत हो गया । कोणिक ने तप आदि द्वारा इन्द्रो की आराधना की। उसकी आराधना के फलस्वरूप शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र आया। शक्रेन्द्र ने कोणिक से कहा- तुम्हारा पक्ष न्यायपूर्ण नही है और चेटक राजा का पक्ष न्यायपूर्ण है।
कोणिक बोला- कुछ भी ही, इस समय तो मेरी 'रक्षा करो।
शक्रेन्द्र ने उत्तर दिया--में अधिक तो कुछ नही कर सकूँगा, सिर्फ चेटक राजा के बाण से तुम्हारी रक्षा करूंगर। मैं उनका वाणवेध चुका दूगा ।।
चमरेन्द्र बोला-~- तुम मेरे मित्र हो, इस कारण मैं सेनावैश्यि करूगा और रथमूसल का सग्राम वैक्रिय करके तुम्हे विजय दिलाऊगा ।