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चौतीसवां बोल-२११
का भी त्याग कर देना चाहिए।
कुछ लोग कहते हैं- परिग्रह हमारे पास भी हैं और साधुओ के पास भी है । जैसे हमे अन्न-वस्त्र चाहिए, उसी प्रकार महाराज को भी अन्न-वस्त्र चाहिए । इस प्रकार कहने वाले लोग अपनी और साधु की एक ही गति है, ऐसा कहते जान पडने हैं। दूसरी आर कुछ लोग कहते हैं -साधु को उपकरण की क्या आवश्यकता है ? साधु को तो दिगम्बर रहना चाहिए और जो साधु दिगम्बर रहता हो, वही साधु है । इस प्रकार दो अलग-अलग मत प्रचलित हैं । इन दो मतो के कारण ही परस्पर वाद-विवाद और कलह उत्पन्न हुआ करता है । पर शास्त्रकार कहते हैं कि इस तरह के वाद-विवाद मे न पडकर उपधि-उपकरण का विवेकपूर्वक त्याग करो । जो भी त्याग करो, विवेकपूर्वक ही करो। ऐसा करने मे ही त्याग की शोभा है । मान लो, किसी मनुष्य ने धोती भी पहनी है और पगडी भी पहनी है। अब अगर उसमे त्यागभावना आ जाये तो वह सर्वप्रथम किस वस्तु का त्याग करेगा ? पहले घोती त्यागेगा या पगडी त्यागेगा? उसके लिए पहले पगडी का त्याग करना ही उचित है । लेकिन यदि वह आग्रह करे कि मैं तो पहले धोती त्यागगा और पगडी पहने रखूगा, तो क्या यह त्याग का आग्रह, विवेकपूर्वक कहलाएगा ? अतएव जो कुछ भी त्याग किया जाये वह सब विवेकपूर्वक ही होना चाहिए । जिस वस्तु का त्याग करने की शक्ति नही है, उसका भी त्याग करके नवीन कठिनाइयां उपस्थित करना उचित नही हैं ।
• पाच समिति और तीन गुप्ति जैनशास्त्रो का सार है।