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२१२ - सम्यक्त्वपराक्रम (३)
समिति अर्थात् प्रवृत्ति और गुप्ति अर्थात् निवृत्ति । उपदेश सो गुप्ति अर्थात् मन, वचन और काय की निवृत्ति के लिए ही है, परन्तु निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति न हो तो धर्म मे गति ही कैसे होगी ? इस कारण भगवान् ने पाच समितियों के द्वारा प्रवृत्ति वतलाई है और मन, वचन, काय द्वारा अशुभ प्रवृत्ति न करने के लिए कहा गया है। प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्वक करना समिति है । चलते समय ईर्यासमिति क ध्यान रखना आवश्यक है । ईर्यासमिति का ध्यान न रखा जाये तो गुप्ति का भाग होता है । अतएव चलने मे, बोलने मे, भिक्षा लेने मे, अर्थात् प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय साधु को पाच समिति और तीन गुप्ति का ध्यान रखना श्रावश्यक
| समिति और गुप्ति प्रवचन माता कहलाती है । वीरपुत्र साधु को अपने प्राणो का भी उत्सर्ग करके प्रवचनमाता की रक्षा करनी चाहिए । 9
शरीर टिकाने के लिए जब भिक्षु को भिक्षा लेनी पडती है, जब भिक्षा लेने के लिए पात्रों की भी आवश्यकता रहती है । अगर साधु पात्र न रखे और गृहस्थो के पात्र में भोजन करे या गृहस्थो के पात्र का उपयोग किया करे तो अनेक अनर्थ उत्पन्न होने की संभावना है । यह वात दृष्टि मे रखकर ही साधुओ को काष्ठ, तूम्वा या मिट्टी के पात्र रखने की छूट दी गई है । जब पात्र लेकर भिक्षा के लिए जाना पडता है तो पात्र रखने के लिए भोली भी चाहिए ही और लज्जा की रक्षा के लिए वस्त्र भी चाहिए ! भगवान् ने कहा है- अगर पात्र रखोगे तो तुम अपने सयम की रक्षा कर सकोगे और रोगी या वृद्ध साधुओ की सेवा भी कर सकोगे । अगर तुम स्वयं गृहस्थो के घर खाते होगे
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