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तेतीसवां बोल-२०७ और ऊँचा दान है, इस बात पर विचार करो 1 जिस मित्र ने रुपये का दान दिया उसका दान भी करुणादान था परतु दूसरे ने भिखारीपन दूर करने का जो दान दिया वह उस की अपेक्षा अधिक प्रशस्त है । इस प्रकार दान में विवेक रखना अच्छा है परन्तु दान देने में पाप ही मानकर उचित नहीं कहा जा सकता ।
न्यश्यमूर्ति रानडे के विषय में सुना है कि जब वे हाईकोर्ट के जज थे तब एक बार दुष्काल के समय घोडागाडी मे बैठकर हवाखोरी के लिए जा रहे थे । रास्ते में उन्होने देखा कि एक मनुष्य गोवर में से अन्न के दाने बीन रहा है । यह दृश्य देखकर उनका दिल दया से द्रवित हो उठा। वह मन ही मन कहने लगा चेचारे लोगों की कैसी दीन दशा है और मैं बग्घी मे सवार होकर घूम रहा हूँ। दया भाव से प्ररित होकर वे उस मनुष्य को अपने घर ले गये और उसको आजीविका की उचित व्यवस्था कर दी । इस घटना के बाद उन्होंने अपनी नौकरी त्याग दी और वे गरीबों की सेवा करने में ही प्रवृत्त हो गए।
कितनेक लोगो के कथनानुसार इस प्रकार के अशक्तों को सशक्त बनाना शस्त्र को तोक्ष्ण बनाने के समान है। परन्तु ऐसा मानना एक प्रकार की भूल है। हम लोग शिष्य बनाते हैं। इस समय कोई मोक्ष मे तो जाता ही नही है, अत वे देवलोक में जाएंगे और वहां सुख का उपभोग करेगे । क्या यह पाप, हमे लगना चाहिए ? अगर नही, तो फिर यही न्याय सब जगह लागू क्यो नही किया जाता ? लोग सशक्त मनुष्य द्वार होने वाला पाप तो देखते है मगर करुणा करने वाले के उच्च भावो को नही देखते । करुणा