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११२-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
मे अनुत्सुकता उत्पन्न ह ती है । अनुत्सुकता से जीव को अनुकम्पा होती है, अनुकम्पा से निरभिमानता होती है । निरभिमानता से जीव शोक रहित होता है और शोकरहित होने से चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करता है।
विवेचन 'सुहसारण' इस पाठ का एक अर्थ तो 'सुखसाता' होता है और दूसरा अर्थ प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'य' का लोप न करने से 'सुखशय्या' भी होता है।
प्रश्न हो सकता है कि सुख-शाति तो सभी जीव चाहते हैं, और सयम से भी जब सुख-शाति प्राप्त होती है तो फिर सयम के लिए किस प्रकार की सुख-शाति का त्याग करना पड़ता है ? और सयम से किस प्रकार की सुख-शाति मिलती है ? हमे यह देखना है कि यहा किस प्रकार की सुख-शांति का वर्णन किया गया है ?
इस प्रश्न का उत्तर यह है, कि २९ वे बोल में अर्थात् सुखसाता के बोल मे कालक्रम से पाठान्तर हो गया है। इस सम्बन्ध मे टीकाकार का कहना है सुखसाता-सुखसायाशब्द से यकार का लोप न किया जाय तो 'सुखशय्या' शब्द बनता है । 'सुखशय्या' शब्द का अर्थ है- सुख से सोना । सुखशय्या के चार भेद किये गये हैं। श्रीस्यानागसूत्र के चौथे स्थान मे भगवान् ने कहा है-हे गौतम | सुखशय्या के चार भेद किये है। ,
पहला भेद मूड होकर निग्रन्थप्रवचन के प्रति नि.शक रहता है, जो मुंडित होकर निग्रन्थ-प्रवचन के प्रति नि शक