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तीसवा बोल-१४१ . है । उसका कोई बघन होना ही नही चाहिए।
- ज्ञानीजन कहते हैं- हे जीव ! तू इस बात, का विचार कर कि तू इस संसार मे बन्धन तोड़ने आया है या बन्धनो. मे बन्धने के लिए आया है ? जेलखाने में कैदी बेडी पहनता. है सो मजा कम करने के लिए या.बढ़ाने के लिए ? इसी प्रकार हे जीव । तू ससार रूपी ,इस. जेलखाने मे आया है, और कुल तथा पत्नी आदि की. वेडी, तुझे पहनाई गई है। अव तू इस वेडी के बन्धन से छूटना चाहता है या अधिक . वन्धना चाहता है ? अरे । यह मनुष्यजीवन. वेडी काटने के, लिए मिला है ! और बार-बार यह सुअवसर मिलना कठिन है। इस आत्मा को मनुष्यजन्म का कैसा दुर्लभ अवसर मिला है, इस सम्बन्ध मे श्रीउतराध्ययनसूत्र में कहा है - .. ___ कम्माण तु पहाणाए आणुपुवी.कयाइयो । जीवा सोहिमणुप्पत्ता प्राययति-मणुस्सय-॥ . :
. = -: -- उत्त, ३२७ ।। , इस गाथा का भाव यह है कि हे आत्मा ! तँ किन्हीं प्रधान-प्रशस्त कर्मों के कारण ही धीरे धीरे यह स्थिति प्राप्त कर सका है । अगर प्रधानं कर्म न होते तो गर्भ में जीवित रहना ही कितना कठिन है, यह विचार कर देखें । तेरे साथ ही दूसरे नौ लाख प्राणी जन्मे थे मगर उन सब मे से तू ही अकेला जीवित बच सका ।अगर तुझे पुण्य' कायोग न मिला होता तो तेरी भी वहीादशी होती जो। - तेरे नौ लाख साथियो की हुई । तू भी मर कर समाप्त हो। जाता । केवल पुण्य के प्रभाव से ही तू बच पाया है।
. प्रश्न किया जा सकता है कि नौ लाख जीव किस