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१६२-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
हमारा काम नही चल सकता, क्योकि हममें ऐमी शक्ति ही नहीं है कि दूसरे के आलम्बन के विना ही हम अपना काम चला सकें । ऐसा कहने वाले को यही उत्तर देना चाहिए कि अगर तुममे आलम्बन लिये बिना काम चलाने की शक्ति ही नही है तो तुमने सभोग का त्याग ही क्यो किया और जब तुमने सभोग का त्याग कर दिया है तो मभोगत्याग का उद्देश्य ही निरालम्बी बनना है । अब किसी का आलम्वन लेने की क्यो मावश्यकता होनी चाहिए ?
भगवान् कहते है - सभोग का त्याग करने से निगलम्बी बन सकते हैं । अवलम्बन लेने से तिरस्कारवृत्ति उत्पन्न होती है। अतएव सभोग का त्याग करने वाला स्वावलम्बी बनता है अर्थात् किसी की सहायता की अपेक्षा नही रखता । कवि कालीदास ने रघुवशी राजा का वर्णन करते हुए कहा है--
स्ववीर्यगुप्ता हि मनोः प्रसूतिः ।
अर्थात-- अपनी रक्षा करने मे आप समर्थ होने के कारण रघुवशी राजा अकेला वन मे गया ।
यद्यपि राजा व्यावहारिक दृष्टि से अपने साथ रक्षक रखता था परन्तु उसे अपने ऊपर ऐसा विश्वास था कि रक्षक मेरी रक्षा नही कर रहे है, वरन् मैं स्वय इतना समर्थ हूं कि रक्षको की भी रक्षा कर सकता है । इस प्रकार वह रघुवशी राजा अपनी और दूसरो की रक्षा करने में समर्थ था और इसी कारण वह अकेला ही वन मे गया था ।
इस प्रकार जिसमे मालम्वनरहित रहने की क्षमता होती है और जो किसी की सहायता की अपेक्षा नही रखता,