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१६-सम्यक्त्वपराक्रम (३) पर निर्भर करता है। शक्ति और साहस न हो तो सभोग का त्याग करना अनिवार्य नही है । आज आपसे रेल मे वैठने का त्याग करने के लिए कहा जाये तो क्या आप त्याग कर सकेगे ? आप यही कहेगे कि रेल मे बैठने का त्याग करने से हमारा काम नही चल सकता। मगर तुम्हारे पूर्वजो का काम रेल के बि। चल सकता था या नहीं ? अगर उनका काम चल सकता था तो तुम्हारा काम क्यो नही चल सकता ? इससे यही मालूम होता है कि साधनो की अधिकता से शक्ति का नाश होता है । अतएव माधनो का यथाशक्ति त्याग करना चाहिए ।
सभोग के त्याग से अ'लम्बन का त्याग होता है । आलम्बन के त्याग से आयत अर्थ की सिद्धि होती है अर्थात् सभोग और आलम्बन का त्याग करने से सयम और मोक्ष के अतिरिक्त दूसरा कोई आधार नही रहता । सभोग के त्याग से प्रत्यक्ष लाभ यह होता कि अपने ही लाभ से सतुष्टि होती है और दूसरे के लाभ की आशा नही रहती । फलस्वरूप हृदय मे ऐसा सकल्प-विकल्प पैदा नहीं होता कि कोई मुझे अमुक वस्तु दे, अमुक ने अमुक वस्तु क्यो न दी अथवा मुझे दूसरे से अमुक वस्तु. मिल जाये । इस दशा मे 'हमारा अमुक काम कर दो' इस प्रकार की प्रार्थना भी नही करनी पडती । जिसे किसी प्रकार की अभिलाषा होती है उसी को दूसरे से प्रार्थना करनी पड़ती है। जिसे दूसरे से सहायता लेने की इच्छा ही नही है और जो दूसरे के लाभ की आशा ही नही रखता, वह दूसरे के सामने प्रार्थी क्यो बनने लगा ? इसी प्रकार जो साधु सभोग का त्याग करके निरवलम्ब, निर्विकल्पी, अप्रार्थी, अस्पृही और अनभि