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२०२-सम्यक्त्वपराक्रम (३) सकता कि यह ज्वालामुखी कब फटेगा और कब यूरोप का विनाम होगा। इसी प्रकार आज का फैशन भी ज्वालामुखी के शिखर तक पहुच चुका है । इस फैशन की बदौलत कब विनाश का आगमन होगा, यह नहीं कहा जा सकता । आज कितनेक लोग परिस आदि पाश्चात्य नगरो मे जाकर और
वहा की ऊपरी तडक भडक देख कर कहने लगते हैं--सारा __ मजा तो बस, यही है । हम लोग तो अभी जगली दगा मे हैं । ऐसा मानने वाले लोगो को यह भान नहीं है कि इस तडक भडक के पीछे कैसी और कितनी परतन्त्रता छिपी हुई है । जिन्होने तडकभडक का त्याग कर दिया है उन्हें तुम मूर्ख मानते हो। मगर यदि तुम इस बात का गम्भीर विचार करोगे कि इस तडकभडक से रवतन्त्रता मिलती है या परतन्त्रता मिलती है, तो अपने पूर्वजो को मूर्ख नही कहोगे । वास्तव में तुम उपरी तडकभडक का त्याग करने वाले अपने पूर्वजो को मूर्ख कहकर अपनी मूर्खता का ही परिचय देते हो ।
आज स्वतन्त्रता की भावना क्षीण हो गई है और इसी कारण त्यागशील पूर्वजो को मूर्ख समझा जाता है । उदाहरणार्थ--हरिश्चन्द्र के विपय में कहा जाता है कि उसने अपना राज्य एक अयोग्य व्यक्ति को सौप दिया, यह मूर्खता नही तो क्या है ? मगर जिसने इतना महान् और अपूर्व त्याग किया उसे मूर्ख कहना क्या उचित है ? हरिश्चन्द्र ने कदाचित् वचनवद्ध होने के कारण अपने राज्य का त्याग किया था, परन्तु शास्त्र मे तो यहा तक कहा है कि--
चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी माहिड्ढियो । सन्ती सन्तिकरे लोऐ पत्तो गइमणुत्तर ।।