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तेतीसवां बोल - १६६
लाषी बनता है, वह साधु श्रीस्थानागसूत्र में कही हुई उत्तम प्रकार की दूसरी सुखशय्या पाकर विचरता है ।
जिस पर शयन किया जाता है उसे शय्या कहते है । शय्या दो प्रकार की है -- सुखशय्या और दुखशय्या । दूसरे के आधार पर रहने वाला दुखगय्या पर सोने वाला है और जो अपने ही आधार पर रहता है, दूसरो का आधार नही लेता, वह सुखशय्या पर सोने वाला है । दूसरो के आधार पर रहना पराधीनता है और अपने आधार पर रहना स्वाधीनता है । पराधीनता के समान और कोई दुख नही तथा स्वाधीनता के समान दूसरा सुख नही । पराधीनता के साथ खाने को मिष्ट न मिलना भी अच्छा नही । उसकी अपेक्षा स्वतन्त्रतापूर्वक मिला हुआ रूखा सूखा रोट ही अच्छा है । स्वतन्त्रता मे जो आनन्द है वह परतन्त्रता में स्वप्न में भी सभव नही ।
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आज लोग स्वतन्त्रता को भूल गये हैं और लकीर के फकीर की भाति बहुत से लोग जो कार्य करते हैं, उसी को करने बैठ जाते हैं । परन्तु यह उनकी भूल है । अधिक लोग जो काम करते हैं, वह करना ही चाहिए, यह ठीक कैसे कहा जा सकता है ? क्या अधिक सख्या मे लोग अप्रामाणिक और विश्वासघाती नही हैं ? क्या इनका अनुकरण करना उचित कहा जा सकता है ? प्रतएव इस धारणा का त्याग कर दो कि बहुजनसमाज जो कार्य करता है वही कर्त्तव्य है । बहुजनसमाज के कार्यों की नकल न करके जिससे आत्मा का कल्याण हो, वही करना चाहिए ।
शास्त्रानुसार स्वाधीनता मे ही सुख है । यह बात