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बत्तीसवाँ बोल -
विनिवर्त्तना
विविक्त शयन और आसन का सेवन करने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम विषयवासना से विमुख होना चाहिए । अतः गौतम स्वामी भगवान से विनिवर्त्तनर के विषय में प्रश्न करते है।
मूलपाठ प्रश्न-विणियट्टणयाए णं भंते ! जीवे कि जणय ?
उत्तर-विणियट्टणयाए पायकम्माणं प्रकरणयाए अब्भु. ट्रे, पुव्ववद्धाणं य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ, तो पच्छर चाउरतं संसारकतार वीइचयइ ॥३२॥
शब्दार्थ प्रश्न -भगवन् । विनिवर्तन से अर्थात विषय-संबन्धी विरक्ति से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर--हे गौतम । विनिवर्तन से नवीन पापकर्म नही होते और पहले के बन्धे हुए टल जाते हैं, तत्पश्चात जीव चारगति रूप ससार-अटवी को लांघ जाता है।