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१७६-सम्यक्त्वपराक्रम (३) की जाती है । इसके अतिरिक्त जो हिंसा होती है उसकी गणना पाप में नही की जाती । उदाहरणार्थ कोई मुनि यदि ईर्यासमितिपूर्वक यतना से चल रहा हो फिर भी कोई जीव अचानक उसके पैर के नीचे आकर मर जाये तो उसमें हिमा का पाप लगना नही माना जाता । इसके विपरीत अगर कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यतना से न चल रहा हो
और कोई जीव न मरे तो भी उसे हिंसा का पाप लगता है क्योकि हिंसा प्रमाद से होती है अर्थात् प्रमाद हिंसा है।
हिंसा का पाप विषयलोलुपता से ही होता है । इसी प्रकार असत्य आदि दूसरे पाप भी विषयलोलुपता के कारण ही उत्पन्न होते है । इन पापो से बचने के लिए विनिवर्त्तना करने की अर्थात् विषयसुख से विमुख होने की आवश्यकता है । विपयवासना से विमुख हो जाने वाला पापकर्मों में प्रवृत्ति नहीं करेगा ।
पूर्ण सत्य तो केवल आदर्श रूप है । जो वस्तु जैसो हो, वह वैसी ही कही जाये अर्थात् बोलने मे एक भी अक्षर का अन्तर न पडे, वह पूर्ण सत्य है । पूर्ण ज्ञानी ही पूर्ण सत्य कह सकते हैं । प्रश्न किया जा सकता है कि पूर्ण ज्ञानी ही अगर पूर्ण सत्य बोल सकते हैं तो दूसरे लोगो को कैसा सत्य बोलना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर से शास्त्रकार कहते है कि हृदय मे विषयभावना या वास्तविकता के विरुद्ध बोलने का भाव न हो तो इस दशा में जो कुछ भी बोला जाता है, वह भी सत्य ही है । श्री आचाराग सूत्र मे कहा है -
समयं ति मन्नमाणे समया या असमया वा समया