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१६५-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
सकता, परन्तु व्यवहार मे तो देखना ही पड़ता है कि अमुक साधु मे साधुता का गुण है या नही ? जो साधु समान रूप से साधुता के नियमों का पालन करते हैं, उनके साथ तो सभोगव्यवहार चालू रह सकता है, परन्तु जो साधु साधुता के नियमो की अवहेलना करते है. उनके साथ स भोगव्यवहार किस प्रकार चालू रह सकता है ?
सभोग किसे कहना चाहिए, इस विषय मे टीकाकार कहते है कि एक मडल मे बैठकर साथ-साथ आहार करना सभोग कहलाता है। ऐसा करने से अपने गुणो का ल भ होता हो तो सभोग चालू रखना उचित है। अगर गुणो की हानि होती हो तो विसभोगी बनकर रहना ही अच्छा है । विसभोग का तो त्याग नहीं होता, परन्तु सभोग का ही त्याग होता है । अतएव यहाँ सभोग के त्याग करने का ही फल पूछा गया है । परन्तु यहाँ विशेष रूप से देखना यह है कि किस दशा मे सभोग का त्याग किया जा सकता है? इस विषय मे शास्त्र में कहा गया है कि साधु जब भलीभाति पद-लिखकर गीतार्थ हो गया हो, तब वह जिनकल्पी, प्रतिमाधारी या किसी अन्य उच्च वृत्ति का धारक बन कर सभोग का त्याग कर सकता है, अन्यथा नही ।।
कतिपय एकलविहारी साधु शास्त्र में वर्णित सभोग त्याग का उल्लेख करके कहते हैं कि हमने भी शास्त्र के कथनानुसार सभोग का त्याग किया है और हम अकेले रहते है। परन्तु ऐसा कहने वाले एकलविहारी साधु शास्त्र के नाम पर धोखा देते हैं और अपना बचाव करते हैं । श्री. स्थानांगसूत्र मे स्पष्ट कहा है