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तेतीसवां बोल-१८६
अहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरही एगलविहारी पडिमं उवसपज्जिता ण विहरित्तए।
अर्थात् जिस साधु मे आठ गुण हो, वही साधु पडिमा धारण करके अकेला रह सकता है। परन्तु जिसमे यह आठ गुण न हो वह अकेला नही रह सकता। इस पर से यह बात समझने योग्य है कि साघु कब और कैसी अवस्था में अकेला रह सकता है ? जिन गुणो की विद्यमानता मे सभोग का त्याग करना बतल या गया है, वह गुण अपने मे न होने पर भी सभोग का त्याग करके अकेला रहना और फिर शास्त्र की आड मे अपना झूठा बचाव करना सर्वथा अनुचित है। एकलविहारी स धु शास्त्र का प्रमाण पेश करते हैं और शास्त्र का प्रमाण तुम्हे भी मान्य होना चाहिए । तुम भी श्रावक हो । शास्त्र मे कहा है -
निग्गथे पावयणे पुरो काउ विहरति ।
अर्थात् -साधु और श्रावक निग्रन्थ प्रवचन को समक्ष रखकर विचरते है । अतएव तुम भी शास्त्र का अध्ययन करो और देखो कि किस अवस्था मे साघु अकेला रह सकता है । अगर तुम शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करोगे तो कोई एकलविहारी साधु शास्त्र का नाम लेकर तुम्हे ठग नही सकेगा।
तत्पर्य यह है कि जो साघु गीतार्थ हो चुका हो, वही जिनकल्पी, प्रतिमाघारी या किसी उच्च वृत्ति का धारक बनने के लिए सभोग का त्याग कर सकता है और उग्र विहार कर सकता है । साधु जिनकल्पी हो, प्रतिमाधारी हो या किसी उच्च वृत्ति को धारण करने की इच्छा वाला हो तो ही वह संभोग का त्याग कर सकता है । ऐसे उच्च