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(६). बत्तीसवा बोल - १७५
fr पार्क मुख्य रूप से अठारह प्रकार के
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हैं । यह सब पाप विषयवासना से ही उत्पन्न उदाहरणार्थ -- हिंसा का पाप वही व्यक्ति करता है, जिसमें विषयलाल सा होती है । प्राणियो के प्राणो को नष्ट करना हिंसा है । परन्तु इस क्रिया को हिंसा के अन्तर्गत कब माना जा सकता है ? इस सम्बन्ध मे कहा है
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प्रमत्तयोगांत् प्राणव्यरोपणं हिंसा ।
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अर्थात् - प्रमाद से या विषयपोषण के लिए किसी प्राणी के प्राणों को नष्ट करना हिंसा- पाप है । अंगर जीव मर जाने मात्र से 'हिंसा को पाप मान लिया जायें तो तेरहवें गुर्णस्थान मे स्थित पुरुष के शरीर से भी जीव मरते हैं, अतएव उन्हे भी हिंसा का पाप लगना चाहिए क्योंकि योगों की चपलता से जीवो को प्राघात पहुंचना या उनकी मृत्यु हो जाना स्वाभाविक है। देखना तो यह चाहिए कि जीव के प्राणघात मे हेतु क्या है ? जो हिंसा प्रमोद से या विषयपोषण के उद्देश्य से की जाती है वही हिंसा पाप के अन्तर्गत कही जा सकती है
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कुछ लोगों को ऐसी शका होती है आकाश जीवों से व्याप्त है और शरीर के
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कि जब सम्पूर्ण द्वारा जीवो का मरण होना भी स्वाभाविक है, तो फिर पूर्ण अहिंसक किस प्रकार हो सकते हैं ? "इस शका का समाधान यह है कि मुनि के शरीर से जीवो का मर जाना स्वाभाविक है, परंतु प. ले यह देखना चाहिए कि उनका उद्देश्य क्या है ? क्या उनका उद्देश्य जीवो को मारना है ? वस्तुत हिंसा वही है जो प्रमाद के योग से की जती है या विषयपोषण के लिए
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