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१७०-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
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व्याख्यान विषय-वासना से विमुख होना विनिवर्तन कहलाता है। जो पुरुष विविक्त शयन और आसन का सेवन करता है, वह विषयवासना से अवश्य पराई मुख हो जाता है। क्योकि विविक्तशयनासन का सेवन करने से चारित्र की रक्षा होती है और जो चारित्र, की रक्षा करना चाहता है वह विषयवासना से पराड मुख होता ही है । इस प्रकार जो आत्मा विषयो की ओर दौडा जा रहा है, उसे उस ओर से रोक देना ही विनिवर्तन कहलाता है । ' जैसे पानी स्वभावत नीचे की ओर बहता है उसी प्रकार पूर्व संस्कारो के कारण आत्मा विषयो को ओर दौडता है । अत्मा को विषयो की ओर जाने से रोकना ही यहा विनिवर्त्तना का अर्थ है । इस विनिवर्त्तन से अर्थात् विषय विरक्ति से जीव को क्या लाभ होता है ? गौतम स्वामी ने भगवान् से यही प्रश्न' किया है । इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फर्माया है कि विषयो से विरक्त होने वाला मनुष्य पापकर्मो मे प्रवृत्त नहीं होता । विनिवर्तन करने वाला हमेशा इस बात को सावधानी रखता है कि मुझसे कभी कोई पापकर्म न हो जाये ! वह पहले के पापकर्मों की निर्जरा करने का भी प्रयत्न करता है । इस प्रकार वह पापकर्मों से निवृत्त होकर निष्पाप बनता है और निष्पाप होने से जीव मनुष्य, तिर्यंच, देव तथा नरक इन चार गति रूप ससार-अटवी को पार कर जाता है । यह मूल सूत्र का अर्थ हुआ । अव इस पाठ के सम्बन्ध में यहा विशेष विचार किया जाता है ।