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तीसवां बोल-१५५
बिम्ब देखकर वह सोचने लगा-मेरा स्वरूप तो कुछ निरालाहो है । मैं इन भेडो जैसा नही है। मेरी आकृति भी इन सरोखी नही है । मेरो आकृति तो उस दिन के सिंह से मिलती-जुलतो है । मेरा मुख भी वैसा ही है और शरीर भी वैसा ही है। मगर देखू जोभ भी वैसो हो है या नहीं? उसने अपनी जीभ निकाल कर देखो तो वह भो उस सिंह सरोखी दिखाई दो । सिंह का बच्चा सोचने लगा- मेरा मुंह, मेरा शरीर, मेरी जीभ, मेरी आकृति और मेरी पूंछ वगैरह सब उस शेर के समान हैं। मगर देखना चाहिए कि मेरी आवाज भी शेर सरीखी है या नहीं ? यह सोचकर बच्चे ने गर्जना की । गर्जना सुनते ही भेडे भयभीत होकर भागी । भेड चराने वाला भी भय का मारा भाग खडा हुआ। सब के भाग जाने से सिंह के बच्चे को विश्वास हो गया कि मैं सिंह ही हू, भेड नही हूं।
। अब इस शेर के बच्चे को भेड़ो की टोली मे रखा जाये तो क्या वह रहना पसन्द करेगा? नही ।
____ भक्त कहता है-जैसे सिंह का बच्चा भ्रम से भेड के समान बन गया था, किन्तु सिंह को देखकर वह अपने स्वरूप को पहचान सका, इसी प्रकार यह आत्मा भी भ्रम के कारण भेड के समान बन गया है । अगर आत्मा स्थिर होकर परमात्मा का ध्यान घरे तो अपने स्वरूप को पहचान सकता है और परमात्मा के समान बन सकता है। परमात्मा का ध्यान करने के लिए एकाग्रता की अत्यन्त आवश्यकता है । एकाग्रतापूर्वक परमात्मा का ध्यान किया जाये और यह विचार किया जाये कि मैं कौन है ? कहाँ से आया हूँ?