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एकतीसवां बोल-१५६
हैं जो क्लेश उत्पन्न होने के कारण स्त्री का मुंह देखना भी पसद नहीं करते। उदाहरणार्थ- सती अजना पर पवनकुमार क्रुद्ध हो गए थे । अतएव वह अजना का नाम सुनना नही चाहते थे । इतना ही नही, जिस द्वार मे से अजनर उनका दर्शन करती थी, वह द्वार भी उन्होने बन्द करवा दिया था । क्या इस प्रकार के बर्ताव को विविक्त सयन सन कहा जा सकता है ? यदि नहीं, तो विविक्त शयनासन किसे कहना चाहिए ? जव साधुओ को किसी भी प्राणी पर द्वेष नही है, सब जीवो के प्रति समभाव है, और वे स्त्री, पशु और नपुसक आदि को आत्मतुल्य गिनते हैं, तो विविक्त शयनासन का यहां क्या अभिप्राय है
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि साधु को एकान्त मे रहना चाहिए, क्योकि सब लोगो का चरित्र सरीखा नही होता । अगर साधुओ के लिए एकान्त मे रहने का नियम न हो और चे स्त्री, पशु और नपुसक वाले स्थान में रहने लगे तो ब्रह्मचर्य का घात होने की सभावना है। हालाकि विजय सेठ और विजया सेठानी एक ही जगह शयन करते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे, यह बात प्रसिद्ध है। किन्तु यह एक अपवाद है। सभी लोग ऐसे मही हो सकते । अतएव ब्रह्मचर्य सम्बन्धी जो मर्यादा बाघी गई है, उसका पालन करना उचित और आवश्यक है । क्योंकि--
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरे जनाः ।
अर्थात् --श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग वैसा ही आचरण करते हैं ।
अतएव विजय सेठ और विजया सेठानी के समान