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एकतीसवां बोल-१६५
कहने का आशय यह है विविक्त शयनासन का सेवन करने से चारित्र की गुप्ति अर्थात् रक्षा होती है । चारित्र की रक्षा होने से आहार सम्बन्धी आसक्ति का नाश हो जाता है और चारित्रपालन मे दृढता प्रातो है । इस प्रकार सग रहित शयन-आसन का सेवन करने वाला तया मोक्ष-भाव को प्राप्त जीवात्मा आठो प्रकार के कर्मों के बन्धन से मुक्त होता है ।
एक भाई ने अभी प्रश्न किया है। वे कहते हैं-मैंने एक वक्ता से यह सुना है कि सासारिक कर्म नष्ट हो जाते हैं और जैनशास्त्र कहता है कि कृत कर्मों का नाश नही होता । इन दोनो मे से कौन-सी बात सही है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जो कर्म जिस प्रकार किया जाता है, वह उसी प्रकार भोगना पड़ता होता तो भगवान् यह क्यो कहते कि विविक्त शयन सन का सेवन करने वाला आठ कर्मों की गाठ तोड सकता है ? किये हुए कर्मों का भोगना अनिवार्य होता तो इस कथन का क्या आशय है ? इसके अतिरिक्त अगर कर्मों की निर्जरा न हो सकती हो तो फिर तप किसलिए किया जाता ? इसमे कर्मों की निर्जरा होना सिद्ध होता है।
अव दूसरा प्रश्न यह खडा होता है कि तप आदि के द्वारा कर्मों की निर्जरा हो जाती है तो फिर 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' अर्थात् किये हुए कर्मों से बिना भोगे छुटकारा नही मिलता, यह क्यो कहा गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यह दोनो वातें सही हैं । मैंने एक कविता सुनी है