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एकतीसवाँ बोल-१६१
यह उपदेश ब्रह्मचर्य को दृष्टि में रखकर ही दिया गया है । अर्थात् यह कहा गया है कि ब्रह्मचारी को एकान्त मे रहना चाहिए।
ब्रह्मचारी को ऐसे स्थान में नही रहना चाहिए, जहां स्त्री, पशु या नपुसक रहते हो । यही नही, ब्रह्मचारी को विकार उत्पन्न करने वाला आहार भी नही लेना चाहिए । जिस आहार के सेवन से विकार पैदा होता है वह विकृत आहार कहलाता है । घी, दूध, तेल वगैरह वस्तुएँ विकृत उत्पन्न करती है, अतः उन्हे 'विगय' कहते हैं । शास्त्र में 'विगय' वस्तुओ के त्याग का खास तौर पर उपदेश दिया गया है । निशीथसूत्र में कहा है : -
'जे भिक्खू पायरिय उवझायं अदिन्नं विगयं प्राहारं तं वा साहिज्जइ ।'
अर्थात्-अगर किसी साधु को विगय अर्थात् विकृत वस्तु लेने की आवश्यकता हो तो उसे आचार्य तथा उपाध्याय की आज्ञा लेकर ही विकृति का आहार करना चाहिए। अगर कोई साधु, प्राचार्य या उपाध्याय की आज्ञा लिए बिना ही विकृत उत्पन्न करने वाले पदार्य स्वय खाता है या दूसरो को खिलाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है तो वह साधु दण्ड का पात्र है 1
ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए तथा स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए जीभ पर अकुश रखने की बडी आवश्यकता है । जीभ पर अकुश न रहने से अनेक प्रकार को हानियां होती हैं । जीभ पर अकुश रखने वाले मनुष्य को शायद ही कभी वैद्य या डाक्टर के पास जाने की आव