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१५६-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
कहा जाने वाला हूं ? मैं देह नही, देही हैं, मैं कान नही वरन् कान से काम लेने वाला हू, इत्यादि, तो आत्मज्ञान प्रकट हो सकता है और पात्मज्ञान होने से परमात्मा को पहचाना जा सकता है । आत्मा का स्वरूप ज नने का प्रयत्न करो तो सिद्धगति प्राप्त कर सकते हो । तुम्हारे जो बाल बचपन में काले थे, वे सफेद होकर सूचना दे रहे हैं कि हम तो अपनी गति प्राप्त कर रहे हैं, तुम अपनी गति क्यो नही प्राप्त करते ? इस उपदेश का अर्थ यह नही कि तुम अपना शरीर नष्ट कर डालो । इसका अर्थ यह है कि आत्मा और शरीर को अलग-अलग समझो और यह मानो कि मैं शरीर नही, शरीर मे रहनेवाला आत्मा है। इस प्रकार देही होने पर भी तुम देह के प्रतिबघ मे पड़े हो । इस प्रतिबध को दूर किये बिना प्रात्मा सिद्धगति प्राप्त नही कर सकता । अतएव प्रतिबंध दूर करने के लिए तथा आत्मा को अप्रतिवद्ध बनाने के लिए एकाग्रतापूर्वक परमात्मा का ध्यान करो । एकाग्रतापूर्वक परमात्मा का ध्यान करने से आत्मा स्वय परमात्मा बन जाएगा । आत्मा का वास्तविक कल्याण अपना स्वरूप समझ ने मे और परमात्मदशा प्राप्त करने मे ही है।
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