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१५०-सम्यक्त्वपराक्रम (३
लेनी पड़ती है, यह स्वाभाविक है, परन्तु इतना ध्यान तो रखना ही चाहिए कि जो आधिभौतिक वस्तु नरक के मार्ग में ले जाने वाली है, वह तुम्हारे काम की नहीं । अतएव आधिभौतिक कार्यों के साथ अध्यात्मिक कार्य भी अवश्य करने चाहिए।
कहने का आशय यह है कि परमात्मा के शरण में जाने के लिए सग का त्याग करो । विषयसुख के मग से क्रोध उत्पन्न होने पर हित-अहित का भान नही रहता। सुना है, मेवाड मे एक पुरुष कोव के आवेश मे आकर अपनी पत्नी को निर्दयतापूर्वक मारने लगा । यह देखकर उसकी लडकी चिल्लाने लगी-'मेरे पिता, माँ को मार रहे है । कोई दीडो, बचाओ' लडकी की यह चिल्लाहट सुनकर पिता ने उसके दोनो पैर पकड़े और पत्थर पर पछाड दो, नतीजा यह हुआ कि वेचारी लटकी तत्काल मर गई । लडकी को मार डालने के बाद उसने पत्नी के भी प्राण ले लिए और अन्त मे आत्मघात करके वह स्वय भी मर गया। क्रोध का परिणाम कितना भयकर होता है, यह बात इसो उदाहरण से समझी जा सकती है। अतएव क्रोध से बचने के लिए सग का त्याग करना चाहिए । विषयलालसा का सग होगा तो क्रोध उत्पन्न होना स्वाभाविक है । क्रोध मे सम्मोह उत्पन्न होता है और सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है । स्मृतिभ्रश से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश मे आप स्वय नष्ट हो जाता है अर्थात नीच गति प्राप्त करता है । इसलिए अपने पूर्वजो के उच्च आदर्श को दृष्टि के सामने रखकर अपने जीवन को भी आदर्श के । अनुसार उच्च बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । दूसरो की