________________
१५२-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
तुम कह सकते हो-हम ऐसा साहित्य कहा से लायें, जिससे हमारा सतानो-युवको के साथ किसी प्रकार का मतभेद न हो। इस प्रश्न के समाधान के लिए वृद्धो और युवको को अपने-अपने भीतर समान रूप से आध्यात्मिक सस्कार उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । यह तो निश्चित है कि वृद्धो का काम युवको के सहयोग के बिना और युवको का काम वृद्धो के सहयोग बिना नही चल सकता । ऐसी स्थिति मे वृद्धो और युवको दोनो का कार्य बराबर चल सके- ऐसा मध्यम मार्ग खोज निकालना आवश्यक है । इस दिशा मे जितना प्रयत्न किया जाये उतना ही लाभदायक है । अगर तुममे सव के सहयोग से कार्य करने की भावना होगी तो तुम्हारा आत्मा इस विषय मे कोई मार्ग अवश्य ही बता देगा । आत्मा मे सव प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान है, आव. श्यकता है भावना की । आत्मा की शक्ति कम नही है । आत्मा मे सिद्ध भगवान् जितनी शक्ति मौजूद है । कहा भी है -
सिद्धा जैसा जीव है, जीव सोई सिद्ध होय । कर्म-मैल का अन्तरा, बुझे विरला कोय । जीव कर्म भिन्न-भिन्न करो, मनुष्य जनम को पाय । ज्ञानातम वैराग्य से, धीरज ध्यान लगाय ॥
कच्चे सोने मे और पक्के ( शुद्ध ) सोने मे जितना अन्तर होता है उतना ही अन्तर जीव और शिव मे है । यद्यपि दोनो सोने है, फिर भी अगर कोई पुरुष शुद्ध सोने को ही सोना माने और कच्चे सोने को सोना न माने तो यह उसकी भूल है । शुद्ध सोने के लिए जो क्रिया की गई है।