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१४४- सम्यक्त्वपराक्रम (३)
है । इस कथन पर गम्भीर विचार करने से ज्ञात होता है अनन्त भवो तक तक करते रहने पर भी यह मनुष्य शरीर किसी को मिलता है और किसी को नहीं भी मिलता । अनन्त एकेन्द्रिय जीव ऐसे मौजूद है जिन्हें अभी तक द्वीन्द्रिय श्रवस्था तक प्राप्त नही हो सकी। परन्तु हमे अपने सत्कार्यं के :- प्रताप से मनुष्यजन्म मिला है । इस विषय में तुलसी - दास ने कहा है----
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चतुराई चूल्हे पड़ो, धिग धिग पड़ो श्राचार | तुलसीहरि के भंजन बिन, चारो वर्ण चमार ॥
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अर्थात् जो व्यक्ति, चाहे वह उच्च कुल में जन्मा हो व्याग्नीचकुला मे उत्पन्न हुआ हो, अगर परमात्मा का भजन मही करता तो वह चमार के समान है ।
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तुलसीदासजी के इस कथन पर तुम कह सकते हो कि ब्राह्मण चमार कैसे हो सकता है ? अथवा हम चमार कैसे बन सकते हैं? इस प्रश्न के उत्तर मे सब से पहले यही कहना है कि चमार क्या करता है, सो देखो । चमार चमडे को पकाता है, रंगता है, साफ़ करता है, और फिर जूता बनाकर तुम्हारे सामने रख देता है । अब तुम परमात्मा का 'भजन 'न करके क्या करते हो, सो विचार करो । तुम तेल श्रीर साबुन कहा मलते हो ? शरीर पर ही तेल - साबुन लगाते हो न यह शरीर क्या है ? चमडा ही । चमार जो चमडा तैयार करता है, उससे दूसरो की रक्षा भी होती है और वह जो कुछ करता है, दूसरो की रक्षा के लिए करता है ।' मगर तुम्हारे इस शरीर के चमड़े से दूसरो का क्या हित होता है जो चमार दूसरो के लिए श्रम करता है,
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